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Saturday, December 18, 2010

काकोरी कांड (क्या भारत आजाद है ?)

काकोरी कांड (क्या भारत आजाद है ?)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों द्वारा चलाए जा रहे इस संग्राम
को गति देने के लिए धन की तत्काल व्यवस्था की आवश्यकता के कारण शाहजहाँपुर में हुई बैठक
के मध्य राजेन्द्रनाथ ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई।
इस योजना को कार्यरूप देने के लिए राजेन्द्रनाथ ने 9 अगस्त 1925 को
लखनऊ के काकोरी से छूटी 8 डाउन ट्रेन पर क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ और
ठाकुर रोशन सिंह व 19 अन्य सहयोगियों के सहयोग से धावा बोल दिया।
बाद में अंग्रेजी शासन ने सभी 23 क्रांतिकारियों पर काकोरी कांड के नाम पर
सशस्त्र युद्ध छेड़ने तथा खजाना लूटने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ,
रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा रोशन सिंह को फाँसी की सजा सुनाई गई।
!! 
आज है, 19 दिसंबर 1927 का वह दिन जब 'काकोरी कांड' के क्रांतिकारियों को फांसी दी गयी.
आइये उनका स्मरण करते हैं !! 

काकोरी जो लखनऊ जिले में एक छोटा सा गाँव हैं. स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने भेजी
बंदूके और धन रोकने हेतु अंग्रेजो की ट्रेन को यहाँ लूटा गया इसलिए इसका
नाम काकोरी ट्रेन डकैती पड़ा. सबसे पहले राजेंद्र लाहिड़ी को 17 दिसंबर सन
1927 को गोंडा जिले (उत्तर प्रदेश) में फांसी दी गयी. ट्रेन को लूटने में
कुल 10 क्रन्तिकारी साथी थे. किन्तु जब गिरफ्तारियां हुई तो 40 से भी अधिक
लोग पकडे गए. कुछ तो निर्दोष थे. अशफाक उल्ला और बख्शी लाल तुरंत नहीं
पकडे जा सके. अंग्रेजी शासन ने इस मुकदमे में 10 लाख रुपये से भी अधिक व्यय किया.
बनवारी लाल ने गद्दारी की और इकबालिया गवाह बन गया. इसने सभी
क्रांतिकारियों को पकड़वाने में अंग्रेजो की सहायता की. इसे भी 5 वर्ष की
सजा हुई. 18 महीने तक मुक़दमा चला पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र
लाहिड़ी और रौशन सिंह को फांसी की सजा हुई. राजेंद्र लाहिड़ी की 'अपील को
प्रीवी काउन्सिल' ने अस्वीकार कर दिया. शचींद्र नाथ सान्याल को कालेपानी की
सजा हुई. बाद में पकडे गए अभियुक्तों में अशफाक उल्ला को फैजाबाद जिले में 19 दिसंबर को
फांसी हुई और बख्शी लाल को कालेपानी की सजा हुई.
...अशफाक उल्ला बड़ी ख़ुशी के साथ कुरान - शरीफ का बस्ता कंधे से टांगे हुए हाजियों
( जो हज करने जाते हैं ) कि भांति 'लवेक' कहते और कलाम पढ़ते हुए फांसी के
तख्ते के पास गए. तख्ते को उन्होंने चूमा और सामने खड़ी भीड़ से कहा ( जो
उनकी फांसी को देखने आई हुई थी ) "मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं
रगें, मेरे ऊपर जो इलज़ाम लगाया गया वह गलत हैं. खुदा के यहाँ मेरा इन्साफ
होगा" ! इतना कह कर उन्होंने फांसी के फंदे को गले में डाला और खुदा का नाम
लेते हुए दुनिया से कूच कर गए.
उनके रिश्तेदार, चाहने वाले शव को शाहजहांपुर ले जाना चाहते थे.
बड़ी मिन्नत करने के बाद अनुमति मिली इनका
शव जब लखनऊ स्टेशन पर उतारा गया , तब कुछ लोगो को देखने का अवसर मिला.
चेहरे पर 10 घंटे के बाद भी बड़ी शांति और मधुरता थी बस आँखों के नीचे कुछ
पीलापन था. शेष चेहरा तो ऐसा सजीव था जैसे कि अभी अभी नींद आई
हैं, यह नींद अनंत थी. अशफाक कवि भी थे उन्होंने मरने से पहले शेर लिखा था
- "तंग आकर हम भी उनके जुल्म के बेदाद से !
चल दिए अदम ज़िन्दाने फैजाबाद से !!
ऐसे क्रांतिकारियों को मेरा कोटि कोटि प्रणाम !"
प्रश्न उठता है क्या भारत आजाद है? अंग्रेज़ी शासन व इस शासन में अंतर है ?
इसे देख दोनों प्रश्नों के उत्तर में कोई भी कहेगा - नहीं 

अंग्रेज़ी शासन में भी देश भक्तों व उनके समर्थकों तक को प्रताड़ित किया जाता था,
तथा शासन समर्थकों को राय साहब की पदवी व पुरुस्कार मिलते थे ?
आज भी शर्मनिरपेक्ष शासन में देश भक्तों को भगवा आतंक कह प्रताड़ित तथा
अफज़ल व आतंकियों को समर्थन, कश्मीर के अल कायदा के कुख्यात आतंकवादी
 
गुलाम मुहम्मद मीर को राष्ट्र की अति विशिष्ठ सेवाओं के लिए " पद्म श्री " सम्मान ?
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक

Thursday, December 2, 2010

खुदीराम बोस

खुदीराम बोस भारत को कुचल रहे ब्रिटिश पर जो पहला बम था, इस राष्ट्र नायक ने फैंका था,स्कूल में भी वह वन्दे मातरम जैसे पवित्र शब्दों की ओर आकर्षित था ! '(मैं भारत माता के चरणों में शीश नवाता हूँ !) और आजादी के युद्ध में कूद पड़े. 16 वर्ष का लड़का पुलिस अवज्ञा कर 19 वर्ष की आयु में जब वह बलिदान हुआ उसके हाथों में एक पवित्र पुस्तक भागवद गीता (देवी गीत) के साथ उसके होठों पर था वंदे मातरम का नारा.--लेखक ! यह अवसर था, फरवरी 1906 में एक भव्य प्रदर्शनी की बंगाल में मेदिनीपुर में व्यवस्था की गयी थी. उद्देश्य तो भारत के ब्रिटिश शासक के भारत में अन्याय को छिपाने का था. प्रदर्शनी पर कठपुतलिया और चित्र थे, जो धारणा बना सकते है कि विदेशी ब्रिटिश शासक भारत के लोगों की सहायता कर रहे थे! प्रदर्शनी देखने के लिए वहाँ बड़ी भीड़ थी ! तब, विज्ञप्ति शीर्षक 'सोनार बांग्ला' के साथ वंदे 'मातरम् नारा लिए पत्रक के एक बंडल के साथ 16 वर्ष का एक लड़का दिखाई दिया, वह पत्रक उन लोगों को वितरण किया गया. इसके अतिरिक्त यह प्रदर्शनी लगाने में अंग्रेजों का असली उद्देश्य यह भी पत्रक में बताया गया. तथा ब्रिटिश अन्याय और अत्याचार के विभिन्न रूपों का खुलासा भी !प्रदर्शनी के लिए आगंतुकों के अतिरिक्त, वहाँ कुछ एक इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादार भी थे. उन लोगों ने अंग्रेजों के अन्याय उजागर करने का विरोध किया ! वंदे मातरम् जैसे शब्द '(स्वतंत्रता) और' स्वराज्य '(आत्म शासन) उन्हें पिन और सुई की तरह चुभते थे. वे पत्रक वितरण से लड़के को रोकने का प्रयास किया. उनकी आँखें गुस्से से लाल, वे लड़के पर गुर्राए glared, उसे डांटा और उसे धमकाते किया बवाल. लेकिन उन्हें अनदेखा कर लड़का शांति से पत्रक वितरण करता चला गया. जब कुछ लोगों ने उस पर कब्जा करने का प्रयास किया, वह चालाकी से भाग निकले. अंतत: एक पुलिसकर्मी के हाथ की पकड़ लड़के पर पद गई वह पत्रक का बंडल भी खींच लिया. लेकिन पकड़ने के लिए लड़का इतना आसान नहीं था. वह अपने हाथ झटकाता मुक्त हुआ. फिर वह हाथ लहराया और पुलिस वाले की नाक पर शक्तिशाली वार किया. फिर वह पत्रक भी अधिकार में ले लिया, और कहा, "ध्यान रखो, कि मेरे शरीर को स्पर्श नहीं! मैं देखता हूँ  आप मुझे कैसे एक वारंट के बिना गिरफ्तार कर सकते हैं!."वो झटका प्राप्त पुलिस वाला फिर आगे बढ़ा, लेकिन लड़का वहाँ नहीं था. वह भीड़ के बीच गायब हो गया था.चाय पान के समय, लोगों के रूप में वंदे 'मातरम् तूफान से पुलिस और राजा के प्रति वफादार भी अपमानित और आश्चर्य से भरे दुखी थे.बाद में एक मामला लड़के के विरुद्ध दर्ज किया गया था, लेकिन अदालत ने उसे लड़के कि कम आयु के आधार पर निर्धारित किया है.जो वीर लड़का इतना बहादुरी से मेदिनीपुर प्रदर्शनी में पत्रक वितरित कर गया और जिससे अंग्रेजों की कुत्सित चालों को हराया खुदीराम बोस था.खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को मेदिनीपुर जिले के गांव बहुवैनी में हुआ था. उनके पिता त्रैलोक्य नाथ बसु नादाज़ोल राजकुमार के शहर के तहसीलदार थे. उसकी माँ लक्ष्मी प्रिया देवी जो अपने धार्मिक जीवन और उदारता के लिए एक पवित्र औरत अधिक जानी जाती थी. हालांकि घर में कुछ बच्चों पैदा हुए थे सब की जन्म के बाद शीघ्र ही मृत्यु हो गई. केवल एक बेटी बच गई. अंतिम बच्चा, खुदीराम बोस, एकमात्र जीवित बेटा था.
बोस परिवार को एक नर बच्चे की चाह थी. लेकिन लंबे समय के लिए उनके आनंद की आयु पर्याप्त नहीं रह सकी. वे अप्रत्याशित रूप से मर गया जब खुदीराम मात्र 6 वर्ष था. उसकी बड़ी बहन अनुरुपा देवी और जीजाजी अमृतलाल ने उसे पालने की जिम्मेदारी कंधे पर ली थी. अनुरुपा देवी ने एक माँ के स्नेह के साथ खुदीराम का पालन कियावह चाहती थी, उसका छोटा भाई अत्यधिक शिक्षित, एक उच्च पद पाने के बाद नाम हो! वह इसलिए उसे पास के एक स्कूल में भर्ती कराया.  ऐसा नहीं था कि खुदीराम नहीं सीख सकता थावह कुशाग्र था और चीजों को आसानी से समझ सकता थालेकिन उसका ध्यान अपनी कक्षा में पाठ के लिए नहीं लगाया जा सका. हालांकि उनके शिक्षकों ने अपनी आवाज के शीर्ष पर चिल्लाया, वह सबक नहीं सुना. सबक से पूरी तरह से असंबंधित विचार उसके सिर में घूमते रहे थे जन्म से एक देशभक्त, खुदीराम बोस ने 7-8 वर्ष की आयु में भी सोचा, ' भारत हमारा देश है. यह एक महान देश है. हमारे बुजुर्गों का कहना है कि यह सहस्त्रों वर्षों से ज्ञान का केंद्र है. तो क्रोधित ब्रिटिश यहाँ क्यों हो ? उनके अधीन, हमारे लोग भी जिस रूप में वे चाहते नहीं रह सकते. बड़ा होकर, मैं किसी तरह उन्हें देश से बाहर खदेड़ दूंगा 'पूरे दिन लड़का इन विचारों में लगा था. इस प्रकार जब वह पढ़ने के लिए एक किताब खोले, उसे एक क्रोधित ब्रिटिश की हरी आंखों का सामना करना पड़ा. यहां तक कि जब वह खा रहा था, वही याद उसका पीछा करती रही और स्मृति उसके दिल में एक अजीब सा दर्द लाई. उसकी बहन और उसके जीजा दोनों ने सोचा लड़का परेशान क्यों है ? उन्होंने सोचा कि उसकी माँ की स्मृति उसे परेशान किया है, और उसे अधिक से अधिक स्नेह दिया. किन्तु खुदीराम भारत माता के बारे में दुखी था. उसकी पीड़ा में दिन पर दिन वृद्धि हुई. 
गुलामी से बदतर रोग न कोय ?एक बार खुदीराम एक मंदिर में गया था. कुछ व्यक्ति मंदिर के सामने बिना आसन जमीन पर लेट रहे थे. "क्यों लोग बिना आसन जमीन पर लेट रहे हैं", खुदीराम ने कुछ व्यक्तियों से पूछा, उनमें से एक ने विस्तार से बताया: "वे किसी न किसी बीमारी से पीड़ित हैं व एक मन्नत मानी है और भोजन और पानी के बिना यहाँ पड़ रहेंगे जब तक भगवान उनके सपने में दिखकर रोग ठीक करने का वादा नहीं देता ..."खुदीराम एक पल के लिए सोचा और कहा, "एक दिन मुझे भी तप करने के लिए भूख और प्यास भुला कर और इन लोगों की तरह जमीन पर बिना आसन लेटना होगा.""आपको क्या रोग है?" एक आदमी ने लड़के से पूछा! खुदीराम हँसे, और कहा, "गुलामी से बदतर रोग न कोय ? हमें इसे बाहर खदेढ़ना होगा ."कितनी  कम उम्र में भी, खुदीराम ने इतनी गहराई से देश की स्वतंत्रता के बारे में सोचा था. लेकिन वह इसे कैसे प्राप्त करे ? यह समस्या हमेशा उस के मन को घेरे रखती थी . वह सफलतापूर्वक कैसे अपने कर्तव्य पूरा कर सकता है? इस प्रकार चिंतित खुदीराम से एक दिन का नाद सुना 'वंदे मातरम', 'भारत माता की जय' (विजय मदर इंडिया के लिए). वह इन शब्दों से रोमांचित था, उसकी आँखें चमकने लगी और वह आनंद का अनुभव किया.
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पणविश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक

Sunday, October 17, 2010

मानवता हितार्थ के निहितार्थ?

मानवता हितार्थ के निहितार्थ?
वामपंथियों ने स्वांग रचाया, पहन मुखौटा मानवता का;
ये ही तो देश को बाँट रहे हैं, पहन मुखौटा मानवता का !!
मैं अच्छा हूँ बुरा विरोधी, कहने को तो सब ही कहते हैं;
नकली चेहरों के पीछे किन्तु, जो असली चेहरे रहते हैं;
आओ अन्दर झांक के देखें,और सच की पहचान करें;
कौन है मानवतावादी और, शत्रु कौन, इसकी जाँच करें!
मानवतावादी बनकर जो हमको, प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं;
चर- अचर, प्रकृति व पाषाण, यहाँ सारे ही पूजे जाते हैं;
है केवल हिन्दू ही जो मानता, विश्व को एक परिवार सा;
किसके कण कण में प्रेम बसा, यह विश्व है सारा जानता!
यही प्रेम जो हमारी शक्ति है कभी दुर्बलता न बन जाये;
अहिंसक होने का अर्थ कहीं, कायरता ही न बन जाये ?
इसीलिए जब भी शक्ति की, हम पूजा करने लग जाते हैं;
तब कुछ मूरख व शत्रु हमारे, दोनों थर्राने लग जाते हैं!
शत्रु भय से व मूरख भ्रम से, चिल्लाते जो देख आइना;
मानवता के रक्षक को ही वो, मानवता का शत्रु बतलाते;
नहीं शत्रु हम किसी देश के, किसी धर्म औ मानवता के;
चाहते इस सोच की रक्षा हेतु, हिंदुत्व को रखें बचाके !
अमेरिका में यदि अमरीकी ही अस्तित्व पे संकट आए;
52 मुस्लिम देशों में ही जब, इस्लाम को कुचला जाये;
तब जो हो सकता है दुनिया में, वो भारत में हो जाये;
जब हिन्दू के अस्तित्व पर भारत में ही संकट छाये!
जब हिन्दू के अस्तित्व पर भारत में ही संकट छाये!!विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक

Saturday, September 18, 2010

शर्मनिरपेक्ष नेताओं को समर्पित   शर्मनिरपेक्षता     तिलक राज रेलन
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

जो तिरंगा है देश का मेरे, जिसको हमने स्वयं बनाया था;
हिन्दू हित की कटौती करने को, 3 रंगों से वो सजाया था;
जिसकी रक्षा को प्राणों से बड़ा मान, सेना दे देती बलिदान;
उस झण्डे को जलाते जो, और करते हों उसका अपमान;
शर्मनिरपेक्ष बने वोटों के कारण, साथ ऐसों का दिया करते हैं;
मानवता का दम भरते हैं, क्यों फिर भी शर्म नहीं आती?
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष....
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

वो देश को आग लगाते हैं, हम उनपे खज़ाना लुटाते हैं;
वो खून की नदियाँ बहाते हैं, हम उन्हें बचाने आते हैं;
वो सेना पर गुर्राते हैं, हम सेना को अपराधी बताते हैं;
वो स्वर्ग को नरक बनाते हैं, हम उनका स्वर्ग बसाते हैं;
उनके अपराधों की सजा को,रोक क़े हम दिखलाते हैं;
अपने इस देश द्रोह पर भी, हमको है शर्म नहीं आती!
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष...
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

इन आतंकी व जिहादों पर हम गाँधी के बन्दर बन जाते;
कोई इन पर आँच नहीं आए, हम खून का रंग हैं बतलाते;
(सबके खून का रंग लाल है इनको मत मारो)
अपराधी इन्हें बताने पर, अपराधी का कोई धर्म नहीं होता;
रंग यदि आतंक का है, भगवा रंग बताने में हमको संकोच नहीं होता;
अपराधी को मासूम बताके, राष्ट्र भक्तों को अपराधी;
अपने ऐसे दुष्कर्मों पर, क्यों शर्म नहीं मुझको आती;
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष....
कारनामे घृणित हों कितने भी, शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

47 में उसने जो माँगा वह देकर भी, अब क्या देना बाकि है?
देश के सब संसाधन पर उनका अधिकार, अब भी बाकि है;
टेक्स हमसे लेकर हज उनको करवाते, धर्म यात्रा टेक्स अब भी बाकि है;
पूरे देश के खून से पाला जिस कश्मीर को 60 वर्ष;
थाली में सजा कर उनको अर्पित करना अब भी बाकि है;
फिर भी मैं देश भक्त हूँ, यह कहते शर्म मुझको मगर नहीं आती!
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष...
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

यह तो काले कारनामों का,एक बिंदु ही है दिखलाया;
शर्मनिरपेक्षता के नाम पर कैसे है देश को भरमाया?
यह बतलाना अभी शेष है, अभी हमने कहाँ है बतलाया?
हमारा राष्ट्र वाद और वसुधैव कुटुम्बकम एक ही थे;
फिर ये सेकुलरवाद का मुखौटा क्यों है बनवाया?
क्या है चालबाजी, यह अब भी तुमको समझ नहीं आती ?
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष...
कारनामे घृणित हों कितने भी,शर्म फिर भी मुझे नहीं आती !
मैं हूँ एक शर्मनिरपेक्ष, शर्म मुझको तभी नहीं आती !! शर्म मुझको तभी नहीं आती !!

पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.
उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर
हम अपने जीवनको उचित शैली में ढाल सकते हैं!
 आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक 
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Saturday, September 11, 2010

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु  मैकाले व वामपंथियों से प्रभावित कुशिक्षा से पीड़ित समाज का एक वर्ग, जिसे देश की श्रेष्ठ संस्कृति, आदर्श, मान्यताएं, परम्पराएँ, संस्कारों का ज्ञान नहीं है अथवा स्वीकारने की नहीं नकारने की शिक्षा में पाले होने से असहजता का अनुभव होता है! उनकी हर बात आत्मग्लानी की ही होती है! स्वगौरव की बात को काटना उनकी प्रवृति बन चुकी है! उनका विकास स्वार्थ परक भौतिक विकास है, समाज शक्ति का उसमें कोई स्थान नहीं है! देश की श्रेष्ठ संस्कृति, परम्परा व स्वगौरव की बात उन्हें समझ नहीं आती! 
 किसी सुन्दर चित्र पर कोई गन्दगी या कीचड़ के छींटे पड़ जाएँ तो उस चित्र का क्या दोष? हमारी सभ्यता  "विश्व के मानव ही नहीं चर अचर से,प्रकृति व सृष्टि के कण कण से प्यार " सिखाती है..असभ्यता के प्रदुषण से प्रदूषित हो गई है, शोधित होने के बाद फिर चमकेगी, किन्तु हमारे दुष्ट स्वार्थी नेता उसे और प्रदूषित करने में लगे हैं, देश को बेचा जा रहा है, घोर संकट की घडी है, आत्मग्लानी का भाव हमे इस संकट से उबरने नहीं देगा. मैकाले व वामपंथियों ने इस देश को आत्मग्लानी ही दी है, हम उसका अनुसरण नहीं निराकरण करें, देश सुधार की पहली शर्त यही है, देश भक्ति भी यही है !
भारत जब विश्वगुरु की शक्ति जागृत करेगा, विश्व का कल्याण हो जायेगा !
 विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया !
 इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक

Sunday, September 5, 2010

राष्ट्र मंडल खेल आयोजन और दिल्ली

राष्ट्र मंडल खेल आयोजन और दिल्ली     -तिलक राज रेलन आजाद 
जानकारी मिली दिल्ली सरकार से,
कभी पढ़ा था हमने किसी अख़बार से, 
राष्ट्र मंडल खेलों का आयोजन होगा,
दिल्ली पर 55 हज़ार करोड़ का व्यय होगा!

दिन महीने वर्ष बीत गए उस शुभ घडी की प्रतीक्षा में,
पता नहीं कौन से पाठ पढ़े थे नेताओं ने अपनी शिक्षा में,
दिल्ली का रंग रूप तो इस आयोजन की तैयारी में भी
बदल नहीं पाया, चुक गयी सारी निधी जाने किस भिक्षा में

इतनी राशी मुझे जो मिल जाती
बिजली- पानी, सड़क भी खिल जाती
दिल्ली यूँ भाग्य पर नहीं रोती
इसके ठहाकों से दुनिया हिल जाती

सारा ढांचा बदल के रख देता 
दिल्ली दुल्हन बना के रख देता
देखते जिस ग़ली, सड़क की तरफ 
नज़ारों पर नज़र फिसल जाती  

ऐसा होना तो तब ही संभव था 
बईमानी होना जहाँ असंभव था 
नेता हो और बईमानी भी न करे?
ऐसा होना ही तो असंभव था!

कैसा वो करार था और कैसा वो समय होगा
देश के यश का वास्ता दिया मगर अपयश होगा 
मदमस्त बेखबर से बैठे है सब क्यों 'तिलक'
यश हो अपयश किसी पे इसका असर कहाँ होगा?

सौभाग्य ऐसा नहीं है दिल्ली का 
छींका*लिखा पड़ा है बिल्ली का 
(छींका -मलाई की हंडिया)
छींका लिखा पड़ा है बिल्ली का
छींका लिखा.....
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक

Thursday, July 22, 2010

चंद्रशेखर आजाद (23 जुलाई 1906 - 27 फरवरी 1931) - शत शत नमन!



सभी देश भक्तों को हमारे प्रेरणा पुंज पत. चंदर शेखर आजाद के 96 वे जन्म दिवस की शुभकामनाएं
चंद्रशेखर आजाद (23 जुलाई 1906 - 27 फरवरी 1931) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अत्यंत सम्मानित और लोकप्रिय क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे। वे भगत सिंह के अनन्यतम साथियों में से थे। असहयोग आंदोलन समाप्‍त होने के बाद चंद्रशेखर आजाद की विचारधारा में परिवर्तन आ गया और वे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिंदुस्‍तान सोशल रिपब्लिकन आर्मी में सम्मिलित हो गए। उन्‍होंने कई क्रांतिकारी गतिविधियों जैसे काकोरी काण्ड तथा सांडर्स-वध को पूर्णता दी। 

जन्म तथा प्रारंभिक जीवन

चंद्रशेखर आजाद का जन्‍म मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले भावरा गाँव में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ। उस समय भावरा अलीराजपुर राज्य की एक तहसील थी। आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी संवत 1956 के अकाल के समय अपने निवास उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव को छोडकर पहले अलीराजपुर राज्य में रहे और फिर भावरा में बस गए। यहीं चंद्रशेखर का जन्म हुआ। वे अपने माता पिता की पाँचवीं और अंतिम संतान थे। उनके भाई बहन दीर्घायु नहीं हुए। वे ही अपने माता पिता की एकमात्र संतान बच रहे। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। पितामह मूलतः कानपुर जिले के राउत मसबानपुर के निकट भॉती ग्राम के निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण तिवारी वंश के थे। 

संस्कारों की धरोहर

चन्द्रशेखर आजाद ने अपने स्वभाव के बहुत से गुण अपने पिता पं0 सीताराम तिवारी से प्राप्त किए। तिवारी जी साहसी, स्वाभिमानी, हठी और वचन के पक्के थे। वे न दूसरों से अन्याय कर सकते थे और न स्वयं अन्याय सहन कर सकते थे। भावरा में उन्हें एक सरकारी बगीचे में चौकीदारी का काम मिला। भूखे भले ही बैठे रहें पर बगीचे से एक भी फल तोड़कर न तो स्वयं खाते थे और न ही किसी को खाने देते थे। एक बार तहसीलदार ने बगीचे से फल तुड़वा लिए तो तिवारी जी बिना पैसे दिए फल तुड़वाने पर तहसीलदार से झगड़ा करने को तैयार हो गए। इसी जिद में उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। एक बार तिवारी जी की पत्नी पडोसी के यहाँ से नमक माँग लाईं इस पर तिवारी जी ने उन्हें खूब डाँटा और 4 दिन तक सबने बिना नमक के भोजन किया। ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण आजाद ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे।

आजाद का बाल्य-काल

1919 मे हुए जलियां वाला बाग नरसंहार ने उन्हें काफी व्यथित किया 1921 मे जब महात्‍मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया तो उन्होने उसमे सक्रिय योगदान किया। यहीं पर उनका नाम आज़ाद प्रसिद्ध हुआ । इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे bandi हुए और उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली। सजा देने वाले मजिस्ट्रेट से उनका संवाद कुछ इस तरह रहा -
तुम्हारा नाम ? आज़ाद
पिता का नाम? स्वाधीन
तुम्हारा घर? जेलखाना
मजिस्ट्रेट ने जब 15 बेंत की सजा दी तो अपने नंगे बदन पर लगे हर बेंत के साथ वे चिल्लाते - महात्मा गांधी की जय। बेंत खाने के बाद 3 आने की जो राशि पट्टी आदि के लिए उन्हें दी गई थी, को उन्होंने जेलर के ऊपर वापस फेंका और लहूलुहान होने के बाद भी अपने एक दोस्त डॉक्टर के यहाँ जाकर मरहमपट्टी करवायी।
सत्याग्रह आन्दोलन के मध्य जब फरवरी 1922 में चौराचौरी की घटना को आधार बनाकर गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो भगतसिंह की bhanti आज़ाद का भी काँग्रेस से मोह भंग हो गया और वे 1923 में शचिन्द्र नाथ सान्याल द्वारा उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को लेकर बनाए गए दलहिन्दुस्तानी प्रजातात्रिक संघ (एच आर ए) में शामिल हो गए। इस संगठन ने जब गाँवों में अमीर घरों पर डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाया जा सके तो तय किया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का तमंचा छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बाद bhi आज़ाद ने अपने niyam  के कारण उसपर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के 8 सदस्यों, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल शामिल थे, की बड़ी दुर्दशा हुई क्योंकि पूरे गाँव ने उनपर हमला कर दिया था। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का nirnay किया। 1 जनवरी 1925 को दल ने देशभर में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रांतिकारी) बांटा जिसमें दल की नीतियों का ullekh था। इस parche में रूसी क्रांति की चर्चा मिलती है और इसके लेखक सम्भवतः शचीन्द्रनाथ सान्याल थे।

अंग्रेजों की नजर में

इस संघ की नीतियों के अनुसार 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया गया । लेकिन इससे पहले ही अशफ़ाक उल्ला खान ने ऐसी घटनाओं का विरोध किया था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जाएगा। और ऐसा ही हुआ। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं - रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह तथा राजेन्द्र सिंह  लाहिड़ी को क्रमशः 19 और 17 दिसम्बर 1927 को फाँसी पर चढ़ाकर शहीद कर दिया। इस मुकदमे के दौरान दल निष्क्रिय रहा और एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन यह योजना पूरी न हो सकी। 8-9 सितम्बर को दल का पुनर्गठन किया गया जिसका नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एशोसिएसन रखा गया। इसके गठन का ढाँचा भगत सिंह ने तैयार किया था पर इसे आज़ाद का पूर्ण समर्थन प्राप्त था।

चरम सक्रियता

आज़ाद के प्रशंसकों में पंडित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम bhi था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट जो स्वराज भवन में हुई थी उसका ullekh नेहरू ने 'फासीवदी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। यद्यपि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को रूस में समाजवाद के प्रशिक्षण के लिए भेजने के लिए एक हजार रूपये दिये थे जिनमें से 448 रूपये आज़ाद की शहादत के samay उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर 1928-31 के बीच शहादत का ऐसा kram चला कि दल लगभग बिखर सा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगतसिंह एसेम्बली में बम फेंकने गए तो आज़ाद पर दल ka pura dayitva aa gaya । सांडर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और फिर बाद में उन्हें छुड़ाने ka pura prayas भी उन्होंने kiya । आज़ाद ke sukhav के viruddh खिलाफ जाकर यशपाल ने 23 दिसम्बर 1929 को दिल्ली के samip वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को 28 मई 1930 को भगवतीचरण वोहरा की बमपरीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना खटाई में पड़ गई थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरू की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गाँधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे । झाँसी में रुद्रनारायण, सदाशिव मुल्कापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर मे शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को 1 दिसम्बर 1930 को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में जाते samay शहीद कर दिया था। ve yadi jivit hote to aaj 95 varsh ke hote. unke janam divas ki sabhi desh bhakton ko badhaai.

शहादत

25 फरवरी 1931 से आज़ाद इलाहाबाद में थे और यशपाल रूस भेजे जाने सम्बन्धी योजनाओं को अन्तिम रूप दे रहे थे। 27 फरवरी को जब वे अल्फ्रेड पार्क (जिसका नाम अब आज़ाद पार्क कर दिया गया है) में सुखदेव के साथ किसी चर्चा में व्यस्त थे तो किसी मुखविर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। इसी मुठभेड़ में आज़ाद शहीद हुए।
आज़ाद की शहादत की सूचना जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने sabhi काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिए उनका अन्तिम संस्कार कर दिया । बाद में शाम के samay उनकी अस्थियाँ लेकर युवकों का एक जुलूस निकला और सभा हुई। सभा को शचिन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीरामबोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को जवाहरलाल नेहरू ने भी सम्बोधित किया। इससे पूर्व 6 फरवरी 1927 को मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे क्योंकि उनके देहान्त से क्रांतिकारियों ने अपना एक सच्चा हमदर्द खो दिया था।

व्यक्तिगत जीवन

आजाद एक देशभक्त थे। अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों से सामना करते samay जब उनकी पिस्तौल में antim गोली बची तो उसको उन्होंने svayam पर चला कर शहादत दी थी। उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के लिए धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद डेरे के 5 लाख की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाए पर वहाँ जाकर उन्हें पता चला कि साधु मरणासन्न नहीं था और वे वापस आ गए। रूसी क्रान्तिकारी वेरा किग्नर की कहानियों से वे बहुत प्रभावित थे और उनके पास हिन्दी में लेनिन की लिखी एक pustak  भी थी। हंलांकि वे svayam पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने मे adhik आनन्दित होते थे। जब वे आजीविका के लिए बम्बई गए थे तो उन्होंने कई फिल्में देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था पर बाद में वे फिल्मो के प्रति आकर्षित नहीं हुए।
चंद्रशेखर आजाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारंभ किया गया आंदोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। आजाद की शहादत के 16 वर्षों के बाद 15 अगस्‍त सन् 1947 को भारत की आजादी का उनका सपना पूरा हुआ।
मेरे आदर्श ,मेरी प्रेरणा चन्द्रशेखर आजाद पर लेखन के लिए आभारी हूँ! पत्रकारिता के गटर को साफ करने का प्रयास करते दशक होने को है, आज आप जैसा साथी मिला प्रसन्नता हुई अभी ब्लॉग जगत में संपूर्ण सृष्टि की जानकारी को खंडबद्ध कर विषयानुसार 25 ब्लॉग बनाये हैं yugdarpan.blogspot.com तिलक संपादक युग दर्पण 09911111611,  mihirbhoj.blogspot.com
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विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक