ऐसे मजाकिया सवाल पत्रकारिता के गिरे स्तर की ओर इशारा करते हैं : पीसी में 55 पत्रकारों ने सवाल पूछे : 17 सवाल हिंदी में, 2 उर्दू में, शेष आंग्ल भाषा में : आलोक मेहता ने साफ पूछा कि जो लोग एनजीओ बनाकर नक्सलवादियों को मोरल सपोर्ट दे रहे हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई कब होगी? : पीसी समापन की घोषणा होते ही विज्ञान भवन हाल मछली बाजार बन गया : मैं प्रधानमंत्री जी से कुछ पूछने का अधिकारी नहीं, होता तो तीन सवाल पूछता :
सवालों पर भी सवाल
किशोर चौधरी
कहिये! प्रधानमंत्री जी, आपको एक सवाल पूछने की अनुमति दें तो आप क्या पूछेंगे? सवाल सुनकर हर कोई खुश नहीं होता, क्योंकि सवाल हमेशा असहज हुआ करते हैं। वे कहीं से बराबरी का अहसास कराते हैं और सवाल पूछने वाले को कभी-कभी लगता है कि उसका होना जायज है। अमेरिका के राष्ट्रपति जिस देश को गुरु कहकर संबोधित करते हैं, उसके प्रधानमंत्री चुनिंदा कलम और विवेक के धनी राष्ट्र के सिरमौर पत्रकारों के समक्ष उपस्थित थे। खचाखच भरे हुए विज्ञान भवन के हॉल में सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी भी उपस्थित थीं।
प्रधानमंत्री की इस प्रेस कांफ्रेंस में पचपन पत्रकारों ने सवाल पूछे - सत्रह सवाल हिंदी में, दो उर्दू में और शेष आंग्ल भाषा में, जैसा मुझे याद रहा। आठ महिला पत्रकार बाकी सब पुरुष। चार सवाल थे कि पाकिस्तान पर अब विश्वास क्यों है? एक सवाल था सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का क्या होगा? छह सवाल नक्सल आंदोलन से जुड़े हुए थे, जिनमें आलोक मेहता ने तो साफ-साफ कहा कि जो लोग एनजीओ बनाकर इन्हें मोरल सपोर्ट दे रहे हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई कब होगी?
एक सवाल था हिंदू आतंकवाद पर कि सरकार कितनी गंभीर है? जम्मू-कश्मीर, पाक अधिकृत कश्मीर और चीन अधिकृत भारतीय भूमि से संबंधित पांच सवाल पूछे गए। भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए क्या योजना है? ऎसे चार सवाल थे। नए राज्य, अगले पीएम, जातिगत जनगणना, अनुसूचित जाति/जन जातियों को निजी क्षेत्र में आरक्षण, मंत्रियों का आचरण, सीबीआई का दुरूपयोग, मुलायम को मंत्री बनाने, आईपीएल और अन्य खेलों में भ्रष्टाचार और आप "प्रो अमेरिका" हैं? ओडीसा में अवैध खनन, केरल में केंद्र की योजनाएं लागू नहीं हो रहीं। पानी के मसले पर भी सवाल पूछे गए।
एक जापानी दैनिक के पत्रकार ने जो कहा, वह मुझे इस तरह समझ आया कि आज छह महीने बाद प्रधानमंत्री से बात करने का मौका आया है, बड़ी लेटलतीफी है। एक सवाल सुमित अवस्थी ने पूछा था कि आप गुरशरण कौर की मानते हैं या सोनिया गांधी की? इस बेहूदा सवाल पर हॉल में हंसी गूंजी, प्रधानमंत्री जी ने थोड़े से किफायती शब्दों में दोनों को अलग बता दिया।
सुमित के सवाल पर मुझे शर्म आई। इसलिए नहीं कि वह निजी और राजनीति से जुड़ा था। एक मशहूर मसखरा विषय है, इसलिए कि जिस देश पर आबादी का बोझ इस कदर बढ़ा हुआ कि देश के घुटनों का प्रत्यारोपण ना हुआ तो वह कभी भी जमीन पकड़ सकता है। जिस देश के समक्ष महंगाई ने असुरी शक्ति पा ली है और उसका कद बढ़ता ही जा रहा है। जिस देश में वैश्विक दबाव के कारण मुद्रास्फीति पर कोई नियंत्रण नहीं हो पा रहा है, उस देश के प्रधानमंत्री जब राष्ट्र के समक्ष अपनी जवाबदेही के लिए उपस्थित हों, तब इस तरह के मजाकिया सवाल हमारी पत्रकारिता के गिरे हुए स्तर की ओर इशारा करते हैं।
इस प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में किया गया था और इसमें कोई संदेह नहीं है कि गठबंधन सरकार चलाने का यह तीसरा प्रयोग आशंकाओं के विपरीत सफल रहा है। आज राष्ट्र के समक्ष भीतरी और बाहरी गंभीर चुनौतियां हैं। वैश्विक आर्थिक उठापटक के दौर में पूंजीवाद का पोषक कहे जाने वाले अमेरिका ने सार्वजनिक सेवाओं का अधिग्रहण आरंभ कर दिया है। जनता के लिए न्यूनतम सुविधाओं को सुनिश्चित किए जाने के प्रयास आरंभ किए हैं। आर्थिक विश्लेषक इन उपायों पर कार्ल मार्क्स के इस समय मुस्कुराते होने की बात कह रहे हैं, जबकि भारतीय विकास का मूल आधार भी यही कदम रहे हैं। आज देश की जनता पीने के पानी और रसोई गैस की प्राथमिकता को सुनिश्चित करना चाहती है। खाद्य वस्तुओं और दूध जैसी दैनिक उपभोग की वस्तुओं पर वैश्विक संकट की भी मार है। इस प्रेस कांफ्रेंस में जो सवाल खुलकर आने चाहिए थे, उनका केंद्र बिंदु होना चाहिए था कि दूसरे कार्यकाल के पहले वर्ष में वादों पर सरकार कितनी खरी उतरी है और आने वाले चार सालों को एक आम आदमी किस निगाह से देखे?
एक सवाल जो कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से संबंधित था, वह हमारे संपूर्ण विकास के रास्ते पर फिर से एक नजर दौड़ाने के लिए बाध्य करता है। सच है कि विकास की पहली सीढ़ी शिक्षा ही है। अल्पसंख्यकों के लिए इस जरूरी कदम को मैं अधिक महत्वपूर्ण मानता हूं कि बेरोजगारी और भुखमरी आतंकवाद जैसे समाज विरोधी कार्य में घी का काम करती हैं। अशिक्षित तबका गुंडई के रास्ते आतंकवाद की पनाह तक पहुंचता है। महानरेगा जैसी महत्वाकांक्षी योजना के बाद मजदूरों का पलायन रुका है। इसी तर्ज पर सबको शिक्षा के अधिकार का कानून भी क्रांतिकारी साबित होगा।
मैं सिर्फ एक पत्रकार का आभार व्यक्त करना चाहता हूं, जिसने पहला सवाल पूछा था। उसकी आंचलिक प्रभाव वाली हिंदी भाषा मुझे स्तरीय लगी, क्योंकि उसने जानना चाहा कि प्रधानमंत्री महोदय ऐसा कब तक चलेगा कि महंगाई बढ़ती रहेगी और आम आदमी रोता रहेगा। आंग्ल भाषा में सवाल पूछने वाले क्षेत्रीय राज्यों से थे अथवा वे थे, जिनकी प्रतिबद्धता राष्ट्र से नहीं है, वरन उन अंतरराष्ट्रीय समाचार समूहों से है, जिनकी नजर में खबर सिर्फ भारत की विदेश नीति ही है। हेडलाइन में भूख की खबरें परोसना चार्मिंग नहीं है, वरन पाकिस्तान को सबक कैसे सिखाएंगे? चीन के सोये हुए ड्रेगन को कैसे भड़काएंगे? या फिर आप शाम को पिज्जा खाएंगे या फिर मक्के की रोटी से काम चलाएंगे? जैसी शीर्ष पंक्तियां कमाई का जरिया हैं।
प्रेस कांफ्रेंस के समापन की घोषणा होते ही विज्ञान भवन का हाल मछली बाजार बन गया। प्रबुद्ध पत्रकार इस तरह चिल्ला रहे थे कि उनके महत्वपूर्ण प्रश्न छूट गए हैं। गरिमा और शालीनता, चिंतन और मनन, परिश्रम और दृष्टि वाले पत्रकारों! अच्छा हुआ कि आप लोग इस प्रेस कांफ्रेंस से पहले अपने सद्कर्मों के बाद दुनिया से विदा ले चुके हैं, अन्यथा आज इस विकासशील देश के पत्रकारों की अपनी पीढ़ी को देखकर अफसोस के दो आंसू भी नहीं बहाते। मैं प्रधानमंत्री जी से कुछ पूछने का अधिकारी नहीं हूं, अगर होता तो एक नहीं तीन सवाल पूछता।
इस बार मानसून सामान्य से बेहतर रहने की उम्मीद है, तो क्या सरकार इस विषय पर सोच रही है कि किसानों को लगभग मुफ्त में बीज और खाद दिए जाएं, ताकि भूखे-नंगे आदमी को नक्सली खरीद ना पाएं?
- मैं जानना चाहूंगा कि आधार पहचान पत्र (यूआईडी) बनाने की प्रक्रिया से जुड़े कार्मिकों द्वारा गलत व्यक्ति की पहचान सत्यापित करने पर कितनी सख्त सजा दी जाएगी? ताकि यह तय हो कि इस देश में स्वच्छंद कौन घूम रहा है।
आखिरी सवाल कि सरकारें इतनी दोगली क्यों हैं कि शराब को राष्ट्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताती हैं, फिर भी प्रतिबंध नहीं लगातीं?
तीसरे सवाल का उत्तर मुझे पता है कि इससे सरकार और उत्पादक को असीमित मुनाफा होता है। सात रुपए की लागत वाली बीयर की बोतल अस्सी रुपए में बेची जाती है। सरकार और कंपनी का फिफ्टी-फिफ्टी। इसका एक उत्तर यह भी हो सकता है कि आओ पी के सो जाएं, महंगाई गई तेल लेने। सोने से पहले कमर जलालाबादी का एक शेर सुनिए-
"सुना था कि वो आएंगे अंजुमन में, सुना था कि उनसे मुलाकात होगी
हमें क्या पता था, हमें क्या खबर थी, न ये बात होगी न वो बात होगी।"
किशोर चौधरी का लिखा यह आलेख डेली न्यूज, जयपुर के संपादकीय पेज पर छपा है. वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित कराया गया है
पत्रकार व पत्रकारिता को समाज की आंख, नाक, व कान ही नहीं उसका मुख भी माना जाता है ! 2004 से वह मुख सरकारी संसाधनों को अधिग्रहित करने में सरकार की विशेष भागीदारी योजना से जुड़कर आंख, नाक, व कान का उपयोग समाज हित नहीं स्वहित साधने में व्यस्त है! ऐसे में समाज के दुःख दर्द, महंगाई व किसी भी समस्या पर पत्रकारिता गूंगी हो गई है तो इस से जुडे लोगों का क्या दोष ! पहले पेट देखें या दूसरों का दुःख दर्द! देश के स्थापित मीडिया व उसके सभी स्तरों पर बाजारवाद व यथार्थवाद के नाम पर ऐसे ही लोगों का प्रभुत्व है! किशोर चौधरी का यह कथन 'पूछने का अधिकारी नहीं हूं' और कैसे लोग इसके अधिकारी हैं क्योंकि लिखित शर्तों से अधिक अलिखित शर्तों को पूरा कर उन्होंने यह अधिकार पाया है!जिस हम जैसे लोग नहीं कर पाते!
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक
3 comments:
wah sir, aapne bahut hi achha likha hai. sumit ka swaal wakai sharmsaar karne wala tha aur aapke swaaal bahut jayaj hain.
mydunali.blogspot.com
NICE POST
बेहद मारक अभिव्यक्ति सटीक मूल्यांकन के साथ.
आशा है कि आप इसी प्रकार से हमेँ जागरूक करते रहेंगे.
तभी तो भारतवर्ष को हम पुनः विश्व-गुरु की पदवी दिला पायेंगे.
शुभमस्तु.
हिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं ई-गुरु राजीव हार्दिक स्वागत करता हूँ.
मेरी इच्छा है कि आपका यह ब्लॉग सफलता की नई-नई ऊँचाइयों को छुए. यह ब्लॉग प्रेरणादायी और लोकप्रिय बने.
यदि कोई सहायता चाहिए तो खुलकर पूछें यहाँ सभी आपकी सहायता के लिए तैयार हैं.
शुभकामनाएं !
"टेक टब" - ( आओ सीखें ब्लॉग बनाना, सजाना और ब्लॉग से कमाना )
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