23 अक्टूबर 1923 को राजस्थान के सीकर जिले के खाचारियावास गांव में अध्यापक श्री देवी सिंह शेखावत के घर जन्मे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के उपराष्ट्रपति श्री भैरों सिंह शेखावत बहुमुखी प्रतिभा व बहुआयामी व्यक्तित्व के घनी थे। श्री भैरो सिंह ने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से सिर्फ राजस्थान ही नहीं, पूरे विश्व में नाम कमाया। राजनीति के शिखर पुरूष ने अपने 87 वर्षीय जीवन काल में न सिर्फ सर्वाधिक अवधि तक विधायक रहने का कीर्तिमान स्थापित किया बल्कि 3 बार राजस्थान के मुख्यमंत्री, वर्षों तक प्रतिपक्ष के नेता, सांसद व उपराष्ट्रपति तक का कार्यकाल तय किया। सती प्रथा हो या जागीरदारी प्रथा, जाति-पाति हो या छुआ-छूत, सभी को नकार कर उन्होनें कई बार अपनों के ही विरोध का सामना किया। भारतीय भाषा, वेशभूषा, सात्विक खान-पान व उनके आतित्थ्य सत्कार में स्पष्ट रूप से राजस्थान की मांटी की सुगन्ध मंहकती थी। छोटा हो या बड़ा, अपना हो या पराया सभी के साथ समरसता के भाव ने उन्हें एक जमीनी नेता की ख्याति दी। वे ‘अन्त्योदय’ योजना के सूत्रधार तो थे ही, वे ‘काम के बदले अनाज’, ‘तीस जिले-तीस काम’ व ‘भागीरथी’ जैसी अनेक कल्याणकारी योजनाओं में गरीबों के मसीहा के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
1942 में 19 वर्ष की अल्पायु में ही पिता के स्वर्गवासी होने पर बालक भैरो सिंह शेखावत के ऊपर पूरे परिवार की जिम्मेदारियां आ गयी थीं। उनके पिता सामाजिक समता के पक्षधर व रूढिवाद के विरोधी थे। जिसका स्पष्ट असर उनमें भी देखा गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें देश व समाज के लिए जीने का पाठ पढ़ाया। जनसंघ के स्थापना के बाद 1952 में हुए राजस्थान विधानसभा के पहले चुनावों में भैरों सिंह शेखावत सहित 50 लोगों को जनसंघ ने अपना उम्मीदवार बनाया। इनमें से 30 की जमानतें जब्त हो गयीं थी। किन्तु, ऐसे कठिन समय में भी, अपने राजनीति कैरियर के प्रथम चुनाव में भैरो सिंह शेखावत अपने दल के 8 विधायकों को लेकर विधानसभा में पहुंचे। यदि 1972 को छोड़ दें तो 1952 से लेकर 2002 तक अनवरत राज्य के विभिन्न हिस्सों से विधायक चुने जाने का गौरव प्राप्त था। वर्ष 1977, 1990 व 1993 में वे राज्य के मुख्यमंत्री रहे। अनेक वर्षों तक प्रतिपक्ष के नेता के रूप में राज्य विधान सभा में उन्होंने अनेक कीर्तमान स्थापित किये। 10 बार विधायक रहे श्री शेखावत ने राज्य के 6 विधान सभा क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व किया। सत्र के दौरान वे पूरे समय विधान सभा में रहा करते थे।
अपने पहले विधायक काल में ही सबसे पहले उन्होंने जमींदारी प्रथा का विरोध कर अपने ही समर्थकों से लोहा लिया तथा सत्तासीन सरकार को इस प्रथा के उन्मूलन में भरपूर सहयोग दिया। 4 सितम्बर 1987 को उन्हीं के गृह जिले सीकर के दिवराला गांव में रूप कंवर नामक महिला सती हुई तो पूरे समुदाय के विरोध के बावजूद उन्होनें सती काण्ड के दोषियों को दंडित करने की मांग कर डाली। इतना ही नहीं, उन दिनों जब मुख्यमंत्री श्री हरदेव जोशी ने सती प्रथा के विरोध में कानून बनाया तो श्री शेखावत उसके समर्थन में खडे हो गये। इस पर राजपूत समाज का एक बड़ा तबका उनके खिलाफ खड़ा हो गया। उन्हे गद्दार तक कहा गया। किन्तु, निर्भीक होकर जनसभाओं में गये और अपने तर्कों से सभी को निरुत्तर कर दिया। वे भाव विव्हल होकर कहा करते थे कि ‘यदि पिता जी की मृत्यु के बाद हमारी माता सती हो गयी होतीं तो मैं मुख्यमंत्री नहीं बनता और भीख का कटोरा लेकर कहीं घूम रहा होता’। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि राजपूत समाज में सती होना प्रथा नहीं है। वे सदा ही सामाजिक समरसता के पक्षधर थे तथा छुआछूत व जात पात को एक बीमारी मानते थे। गरीबों व किसानों के कल्याण की अनेक योजनाएं उन्होंने क्रियान्वित कीं। ‘अन्त्योदय’ योजना के राजस्थान में सफल क्रियान्वयन से प्रभावित होकर यह योजना पूरे देश ने अपनाई। विश्व बैंक के तत्कालीन प्रमुख श्री रावर्ट मैकमारा ने तो भैरो सिंह को दूसरा राक फेयर की संज्ञा दी जिसने अमेरिका में शिक्षा, गरीबी उन्मूलन तथा समाज सेवा के क्षेत्र में विलक्षण कार्य किये।
आदम्य साहस के धनी थानेदार भैंरोसिंह शेखावत ने अपनी बुद्धि व कौशल का परिचय देते हुए शेखावटी के कुख्यात डाकू शैतान सिंह को पकड़कर मेडल हासिल किया था। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि उन दिनों आज की तरह न तो कोई वायरलेस सेट थे न ही द्रुतगामी वाहन। श्री शेखावत एक अजात शत्रु थे। उन्होंने जहां कदम रखा सफलता हाथ लगी। विरोधी भी उनकी वाकपटुता व व्यवहार कुशलता के कायल थे। हर परिस्थिति में सहज रहना उनका स्वभाव था। वे राजनैतिक जोड़ तोड़ के महारथी थे। उनकी राजनैतिक प्रतिबध्दता शीशे की तरह साफ थी। अपने 50 वर्ष के राजनीतिक जीवन में शायद ही कोई ऐसा राजनैतिक दल होगा जहां उनके मित्र न हो। वे ‘भैंरो बाबा’ के नाम से प्रसिध्द थे। 83 वर्ष की आयु में भी उन्होंने पेरिस की एफिल टावर पर चढ़कर उदम्य इच्छा शक्ति का परिचय दिया। वे उम्र को कैरियर में बाधक नहीं मानते थे। अटल बिहारी बाजपेयी व लालकृष्ण आडवानी 1950 के दशक से ही अभिन्न मित्र थे तथा अक्सर साथ-साथ भोजन किया करते थे। वे सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक थे। बात 7 अप्रैल 2006 की है। एक बंगला लेखक सुनील गंगोपाध्याय को दिल्ली में एक संस्था द्वारा सरस्वती सम्मान से नवाजा जाना था। यह सम्मान उपराष्ट्रपति श्री भैरो सिंह शेखावत देने बाले थे। जब हमें इस बात की जानकारी मिली कि सुनील गंगोपाध्याय ने मां सरस्वती का अपमान किया है तो उसे सरस्वती सम्मान कैसा? हमने तुरन्त श्री भैरोसिंह को एक फैक्स द्वारा इसकी सूचना देते हुए निवेदन किया कि आप जैसे सांस्कृतिक मूल्यों के रक्षक द्वारा ऐसे व्यक्ति को पुरस्कृत करने से अनर्थ हो जायेगा। श्री भैरोंसिंह उस कार्यक्रम में नहीं पहुंचे। ऐसे राष्ट्रपुरुष को हम सब की विनम्र श्रद्धान्जलि।
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक
अपने पहले विधायक काल में ही सबसे पहले उन्होंने जमींदारी प्रथा का विरोध कर अपने ही समर्थकों से लोहा लिया तथा सत्तासीन सरकार को इस प्रथा के उन्मूलन में भरपूर सहयोग दिया। 4 सितम्बर 1987 को उन्हीं के गृह जिले सीकर के दिवराला गांव में रूप कंवर नामक महिला सती हुई तो पूरे समुदाय के विरोध के बावजूद उन्होनें सती काण्ड के दोषियों को दंडित करने की मांग कर डाली। इतना ही नहीं, उन दिनों जब मुख्यमंत्री श्री हरदेव जोशी ने सती प्रथा के विरोध में कानून बनाया तो श्री शेखावत उसके समर्थन में खडे हो गये। इस पर राजपूत समाज का एक बड़ा तबका उनके खिलाफ खड़ा हो गया। उन्हे गद्दार तक कहा गया। किन्तु, निर्भीक होकर जनसभाओं में गये और अपने तर्कों से सभी को निरुत्तर कर दिया। वे भाव विव्हल होकर कहा करते थे कि ‘यदि पिता जी की मृत्यु के बाद हमारी माता सती हो गयी होतीं तो मैं मुख्यमंत्री नहीं बनता और भीख का कटोरा लेकर कहीं घूम रहा होता’। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि राजपूत समाज में सती होना प्रथा नहीं है। वे सदा ही सामाजिक समरसता के पक्षधर थे तथा छुआछूत व जात पात को एक बीमारी मानते थे। गरीबों व किसानों के कल्याण की अनेक योजनाएं उन्होंने क्रियान्वित कीं। ‘अन्त्योदय’ योजना के राजस्थान में सफल क्रियान्वयन से प्रभावित होकर यह योजना पूरे देश ने अपनाई। विश्व बैंक के तत्कालीन प्रमुख श्री रावर्ट मैकमारा ने तो भैरो सिंह को दूसरा राक फेयर की संज्ञा दी जिसने अमेरिका में शिक्षा, गरीबी उन्मूलन तथा समाज सेवा के क्षेत्र में विलक्षण कार्य किये।
आदम्य साहस के धनी थानेदार भैंरोसिंह शेखावत ने अपनी बुद्धि व कौशल का परिचय देते हुए शेखावटी के कुख्यात डाकू शैतान सिंह को पकड़कर मेडल हासिल किया था। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि उन दिनों आज की तरह न तो कोई वायरलेस सेट थे न ही द्रुतगामी वाहन। श्री शेखावत एक अजात शत्रु थे। उन्होंने जहां कदम रखा सफलता हाथ लगी। विरोधी भी उनकी वाकपटुता व व्यवहार कुशलता के कायल थे। हर परिस्थिति में सहज रहना उनका स्वभाव था। वे राजनैतिक जोड़ तोड़ के महारथी थे। उनकी राजनैतिक प्रतिबध्दता शीशे की तरह साफ थी। अपने 50 वर्ष के राजनीतिक जीवन में शायद ही कोई ऐसा राजनैतिक दल होगा जहां उनके मित्र न हो। वे ‘भैंरो बाबा’ के नाम से प्रसिध्द थे। 83 वर्ष की आयु में भी उन्होंने पेरिस की एफिल टावर पर चढ़कर उदम्य इच्छा शक्ति का परिचय दिया। वे उम्र को कैरियर में बाधक नहीं मानते थे। अटल बिहारी बाजपेयी व लालकृष्ण आडवानी 1950 के दशक से ही अभिन्न मित्र थे तथा अक्सर साथ-साथ भोजन किया करते थे। वे सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक थे। बात 7 अप्रैल 2006 की है। एक बंगला लेखक सुनील गंगोपाध्याय को दिल्ली में एक संस्था द्वारा सरस्वती सम्मान से नवाजा जाना था। यह सम्मान उपराष्ट्रपति श्री भैरो सिंह शेखावत देने बाले थे। जब हमें इस बात की जानकारी मिली कि सुनील गंगोपाध्याय ने मां सरस्वती का अपमान किया है तो उसे सरस्वती सम्मान कैसा? हमने तुरन्त श्री भैरोसिंह को एक फैक्स द्वारा इसकी सूचना देते हुए निवेदन किया कि आप जैसे सांस्कृतिक मूल्यों के रक्षक द्वारा ऐसे व्यक्ति को पुरस्कृत करने से अनर्थ हो जायेगा। श्री भैरोंसिंह उस कार्यक्रम में नहीं पहुंचे। ऐसे राष्ट्रपुरुष को हम सब की विनम्र श्रद्धान्जलि।
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