1. कल्पना करें आज से पच्चीस हजार वर्ष पहले की जब आदमी मुख्यतया शिकार पर ही जीवन यापन करता था। मनुष्य की अपेक्षा सृष्टि के अनेक अन्य जानवर उससे कहीं अधिक सशक्त रहे हैं। बाघ या सिंह वन में राज्य करते रहे हैं; तब यह उनसे दुर्बल जीव मनुष्य कैसे अपनी रक्षा कर पाया, और उन सशक्त जानवरों का भी राजा बन गया? जंगल में जहां उसे हिरन या मोर आदि का शिकार करने जाना होता था, वहां तो इऩ्हीं आक्रामक और शक्तिशाली जानवरों का राज्य होता था। तब वह वहां कैसे आखेट के लिये अकेले जा सकता ! उसे तो दल बनाकर ही जाना पड़ता होगा, ताकि चारों दिशाओं पर (वैसे तो छह दिशाएं कहना चाहिये - एक ऊपर क्योंकि झाड़ों पर से भी आक्रमण हो सकते थे - और नीचे सरी सृपों से रक्षा के लिये) चौकस रखी जा सके। यदि शारीरिक रूप से दुर्बल मानव जाति इन भयंकर जंतुओं के रहते अपनी रक्षा तथा योग क्षेम मात्र लाठी तथा पत्थरों से कर सकी थी, तब इसमें संदेह नहीं होना चाहिये कि यह 'सहयोग' या सहकार से ही हुआ। सहयोग के तत्काल प्रतिदान की अपेक्षा नहीं होती सिवाय इसके कि 'शुभ कामनाएं' मिलें। किन्तु उस काल के आखेट में सहयोग में भी कुछ स्पष्ट 'लेन देन' की भावना या मान्यता रहती होंगी, जैसे कि शिकार (हिरन) का मांस सभी में बँटता होगा, वास्तव में वह सहयोग अलिखित सहकार ही था, लिखित अनुबन्ध तो उन दिनों नहीं होते थे।
आखेट और रक्षा का यह सहयोग तथा सहकार हमारे जीन्स या आनुवंशिकी में पर्याप्त मात्रा में आ गया है; किन्तु इससे अधिक मात्रा में तो हमें स्वार्थमय योगक्षेम ही मिला है, और सौभाग्य कि इससे भी अधिक हमें संतान प्रेम मिला है।
यह तो हमें मालूम है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जैसे चींटी, मधुमक्खी आदि, क्योंकि इनके सदस्यों में समाज के हित के लिये कार्य, स्व की देखभाल के अतिरिक्त, बँटे रहते हैं। और इसीलिये, यह गुण न होने के कारण, बाघ, सिंह, बिल्ली आदि सामाजिक प्राणी नहीं हैं। भेडिये, जंगली कुत्ते आदि को हम अर्ध सामाजिक कह सकते हैं, क्योंकि इनमें सहयोग शिकार करने तक ही सीमित होता है। किन्तु यह दृष्टव्य है कि समाज का लाभ सभी प्राणी उठाते हैं, और समाज को लाभ भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, सभी प्राणी पहुँचाते हैं। इसलिये वर्गवादी दृष्टि की अपेक्षा समग्र या समग्रतर दृष्टि अधिक वांछनीय है।
2. सहयोग तथा सहकार में बारीक अंतर है, क्योंकि बिना सहयोग की भावना के सहकार नहीं हो सकता। एक तो सहयोग अनौपचारिक है, और सहकार औपचारिक जिसमें नियम या अनुबन्ध भी होते हैं। किसी कार्य को लिखित साझारूप से आपस के लाभ के लिये करना सहकार है। सहकार में साझा व्यक्तियों के उद्देश्य तथा कार्य विधि में सहमति होना आवश्यक है। सहयोग में करने वाले को किसी अन्य लाभ की अपेक्षा नहीं होती, जब कि सहकार में लाभ या हानि बाँटी जाती है। सहयोग करने वाले पक्षों के बीच घनिष्ठता तथा मैत्री होती है, यद्यपि यह अनिवार्य नहीं, जब कि सहकार में मैत्री की भावना आवश्यक है। जब भिन्न लोगों के ध्येय या उद्देश्य में समानता हो तब उनमें भी सहयोग हो सकता है। जब कुछ दल या लोग मिलकर किसी मित्र को ही धोखा देकर अपना लाभ कमाएं तब वह सहकार उनके बीच मिलीभगत कहलाता है। जब कोई अधिक समर्थ अपने किसी मित्र या संबन्धी मातहत की अनैतिक सहायता करता है तब उस सहयोग को सरपरस्ती कहते हैं। सहकार में सहयोग के गुणदोष आ सकते हैं। यद्यपि सभी प्रकार की सहायता या दान सहयोग कहलाया जा सकता है, तथापि किसी के द्वारा भी कार्य किये जा रहे ध्येय के साथ यदि आपकी सहमति या सहानुभूति है, और देश काल के थोड़े बड़े स्तर पर जब उसकी आप जो सहायता करेंगे, उसे सहयोग कहा जाएगा। इस तरह हम देखते हैं कि सहायता की अपेक्षा सहयोग देश काल के थोड़े बड़े स्तर पर होता है।
सहकारी संस्था : आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं तथा उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्वेच्छा से संगठित, जनतांत्रिक पद्धति से चालित एवं सभी सदस्यों के स्वामित्व में कार्यरत स्वायत्त संस्था सहकारी संस्था कहलाती है। संस्था का स्वायत्त रहना प्रत्येक दशा में अनिवार्य है अन्यथा संगठन अपने मार्ग से भटक सकता है। यदि कार्य करने के लिये धन की आवश्यकता हो तब संगठन के सदस्य बराबरी से धन का निवेश करते हैं, और हानि लाभ भी बराबरी से बाँटते हैं। ऐसी संस्थाएं अपनी सफ़लता के लिये कुछ जीवन मूल्यों के अनुपालन की माँग करती हैं, यथा, सच्चाई, जनतंत्र, न्याय, एकता, खुलापन, सामाजिक उत्तरदायित्व तथा समाज - सेवाभाव आदि। इसकी कार्यपद्धति सहकारिता तथा विचारप्रणाली सहकारवाद कहलाती है। सहकारी का मुख्य उद्देश्य हिस्सेदारों को अधिकतम लाभ देना नहीं, वरन अपने ग्राहकों या लक्ष्य मनुष्यों को मूल्यवान सेवा देना है। यह वे तभी कर सकते हैं कि जब वे स्वयं मानवीय जीवनमूल्यों पर आचरण करें। अत: सदस्यों का सहकारी विचारधारा में शिक्षित होना भी आवश्यक है। सहकारी संगठन अनेक प्रकार के होते हैं, यथा, गृह निर्माण, विक्रय, कर्मचारी, उपभोक्ता, किसान, मजदूर, महिला जागरण, शिक्षण, जिज्ञासा, प्रकृति संरक्षण इत्यादि।
3. सहकारिता तथा प्रेम में गहरा सम्बन्ध है। वैसे तो 'लगाव' से ही लोग आपस में जुड़ सकते हैं, और कार्य भी कर सकते हैं, किन्तु लगाव में वह सेवा भाव नहीं हो पाता जैसा कि प्रेम में होता है। प्रेम सहज ही सहायता करने की प्रेरणा और शक्ति देता है। प्रेम सहकारिता की शक्ति को और सुदृढ़ करता है। बिना प्रेम के सहायता या सहकारिता निरी व्यावसायिक कहलाती है। सहकारिता सफ़लता के लिये 'नैतिकता' की मांग करती है, अन्यथा इसमें अक्सर एक पक्ष की स्वार्थ सिद्धि तो हो सकती है, किन्तु दोनों पक्षों के लाभ की सही सिद्धि शायद ही हो; किन्तु थोड़ा सा भी प्रेम होने पर दोनों पक्षों के उचित स्वार्थ की सिद्धि हो सकती है। ग्वाला प्रेम होने पर नकली दूध तो नहीं बेचेगा। दान की अपेक्षा रखने वाले विद्वान साधुओं के भी संगठन होते हैं, जिनकी कार्य पद्धति 'सहकारी' नहीं होती, उनके प्रवचन व्यवसाय नहीं वरन सहायता हैं क्योंकि वह श्रोताओं के जीवन के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हैं और सुखी जीवन के लिये सहायता करते हैं, उनमें आपके लिये प्रेम है, उनका कार्य व्यवसाय नहीं है, यद्यपि इसके अपवाद भी होते हैं। अपने लाभ के लिये स्वकेन्द्रित व्यक्ति हानिकारक चिप्स तथा कोला भी बेचेगा या बिकवाएगा चाहे वह कोला की कम्पनी या आपका प्रिय क्रिकैट का हीरो या फ़िल्मों का हीरो क्यों न हों, उनसे हमें सावधान ही रहना चाहिये क्योंकि इस तरह यह सच्ची सहायता नहीं, वरन लूटने वाला व्यापार हैं, वे आपकी सहृदयता का शोषण कर रहे हैं!!
सहकारिता का कार्यक्षेत्र बहुत विशाल तथा गहरा है। पति पत्नी का जोड़ा परिवार की इकाई है, जो संतान का पालन पोषण कर सृष्टि को चलाता है। भारतीय परम्परा में वैवाहिक सम्बन्ध संस्कारों पर आधारित होते हैं; किन्तु आजकल पति पत्नी के संबन्ध भी 'सहकारिता' के अन्दर आने लगे हैं क्योंकि वे एक तरह के कानूनी अनुबन्ध हो रहे हैं। यदि इनमें प्रेम या सहयोग या सहकारिता (अनुबन्ध विवाह में) न हो तो पति पत्नी तो दुखी होंगे ही, सृष्टि ही दुखी हो जाए। पति तथा पत्नी के बीच सहयोग या सहकारिता सहज है भी और नहीं भी। सहज इस अर्थ में है कि पुरुष और नारी में सहज आकर्षण तो होता है और वे एक दूसरे की सहायता सहर्ष कर सकते हैं। किन्तु अक्सर यह आकर्षण अपने भोग के लिये ही सहयोग उत्पन्न करता है, अत: उसमें स्थायित्व कठिनाई से ही आ सकता है। अतएव उसे अपेक्षाकृत स्थायी बनाने के लिये संस्कृति और समाज उनके बीच सच्चा प्रेम उत्पन्न कराते हैं, वरना यह जीवन चक्र सुचारु रूप से नहीं चल सकता। माता पिता तथा संतान के बीच प्रेम या सहयोग या सहकारिता (दुर्भाग्य ही कहना पड़ेगा कि, बच्चों के मानवाधिकार के नाम पर इस पावन संबन्ध को भी 'अनुबन्ध' बनाया जा रहा है) इतनी अधिक महत्वपूर्ण है कि प्रकृति ने इसे तो सहज या जन्मजात बना दिया है, तब भी संस्कृति का कार्य इसमें भी महत्वपूर्ण है।
सहकारिता के बिना न तो यह शारीरिक रूप से दुर्बल मनुष्य अपनी रक्षा कर पाता और न अपना विकास, क्योंकि आदिम काल में तो पहले उसके पास लाठी और पत्थर के अतिरिक्त हथियार भी नहीं थे। यह तो स्पष्ट है कि सहकारिता पर आएधारित ज्ञान और प्रौद्योगिकी के बिना न तो विद्युत, यांत्रिक वाहन, विमान, उपग्रह, मोबाइल फ़ोन, टीवी, चिकित्सा, नगर आदि होते और न यह सभ्यता होती। किन्तु मानव समाज की संस्कृति कैसे भ्रष्ट हो गई? जैसे ही सहकारिता निरी व्यावसायिकता में बदल गई, वैसे ही संस्कृति भोगवादी संस्कृति बन ग़ई। आज मनुष्य न केवल हाथियों और सिंहों पर राज्य कर रहा है, वरन अपनी सफ़लता के घमण्ड पर अपने को प्रकृति का स्वामी समझ कर उसका विनाश कर रहा है। उसने न केवल पाँचों तत्वों - आकाश, वायु, अग्नि, जल और मिट्टी (पृथ्वी) को प्रदूषित कर दिया है, वरन छठवां तत्व हमारा मन भी प्रदूषित कर दिया है।
4. यूरोप में नवजागरण काल में सोलहवीं शती में उद्योगपतियों या व्यवासाइयों के 'गिल्ड' हुआ करते थे जो उद्योग या व्यापार के नियम बनाया करते थे और उनका सभी घटकों में पालन भी देखते थे; किन्तु वह आधुनिक अर्थों में 'सहकारिता' नहीं थी। अधिकांश विद्वान यह कहते हैं कि सहकारिता तो ब्रिटैन की औद्योगिक क्रान्ति पर प्रतिक्रिया की बीसवीं सदी की उपज है। किन्तु यह सुखद तथ्य है कि सहकारिता के विषय में विश्व में सर्वप्रथम श्रमिकों के संगठन, उद्योगपतियों या व्यवसाइयों, तथा गिल्ड, और सहकारिता के नियमों की जानकारी चाणक्य (३३० ईसा पूर्व) द्वारा रचित 'अर्थशास्त्र ' (आर्थिक शास्त्र नहीं, वरन शासन संहिता) में मिलती है और वह भी पर्याप्त विकसित रूप में। शासन निजी तथा शासकीय उद्योगों के कार्यों के सुचालन में उपयुक्त नियमों के बनाने तथा कार्यान्वयन में सक्रिय योगदान करता था।
आजकल अनेक विशाल उद्योग, दूकानें, बैन्क आदि सहकारिता के आधार पर चल रहे हैं, अधिकांशतया, इनके सदस्य उपभोक्ता होते हैं। विदेशों में यह अधिकांशत: सफ़ल हैं किन्तु एशिया में कम ही सफ़ल हैं। सहकारिता को इस देश में भी वांछनीय मह्त्व या सम्मान नहीं मिलता। सोचने की बात है कि सहकारिता की इस नगण्य प्रगति में हमारा चरित्र ही प्रमुख कारण है या इसमें पहले रूसी सोच पर आधारित समाजवाद (संक्षेप में कहें तो यूनिअनिज़म) ने इसका विरोध किया, और बाद में खुले बाजार के पूँजीवाद ने। जब विश्व में इसके तहत खरबों डालर का कार्य सुचारु और व्यवस्थित रूप से चल रहा है, तब हम भी समस्याओं के हल निकाल सकते हैं, किन्तु वे मूलभूत विचार में कमी के कारण सीमित फ़िर भी रहेंगे। सहकारिता के कार्य में कार्मिकों में दक्षता के साथ उपरोक्त मूल्य, यथा, सच्चाई, सेवाभाव, कर्तव्यनिष्ठा आदि अत्यंत आवश्यक हैं। यह चरित्र का विषय तो है ही, किन्तु साथ ही व्यक्ति की समग्र जीवन दृष्टि का भोगवादी न होकर 'त्यागमय- भोगवादी' होना भी आवश्यक है।
5. सहाकारिता की दृष्टि मानवीय हो सकती है, न तो यह आवश्यक रूप से पूँजीवादी है और न साम्यवादी। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, यदि इसमें सहकारी संस्था का प्रमुख ध्येय 'लाभ कमाना ' नहीं है। दूसरे यह केवल मजदूरों या किसी एक वर्ग का ही हित नहीं देखती, और न उनके द्वारा राज्य संचालन की माँग करती है। पूँजीवाद में पैसे की गुलामी है, इसमें शक्ति का सदुपयोग (!) धन बनाने के लिये किया किया जाता है, जो अनंत और स्वीकार्य भ्रष्टाचार को जन्म देता है और जनतंत्र को नपुंसक बनाता है। और साम्यवाद में वैचारिक तथा संकेन्द्रित सत्ता की गुलामी है और इनका काडर- माफ़िया नागरिकों पर हावी रहता है। और दोनों ही दर्शन भोगवादी हैं। देखा जाए तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही सच्चे अर्थों में मानववादी नहीं हैं। सहकारिता तो, पूँजीपति हों या मजदूर हों, सदस्यों सहित सभी समाज का हित देखती है। इसमें क्या आश्चर्य कि सन २००२ में संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्विशेष सभा में यह स्वीकारा गया कि सहकारिता आर्थिक समृद्धि तथा समाजिक न्याय एवं विकास में मह्त्वपूर्ण योगदान देती है, और उऩ्होंने विश्व के देशों से अनुरोध किया कि वे इस सहकारिता के द्वारा समाज की आर्थिक, सामाजिक उन्नति करें। इसके महत्व को देखते हुए सं. रा. संघ ने वर्ष २०१२ को सहकारिता का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है।
यदि हम और भी विशाल परिप्रेक्ष्य में देखें तब जनतंत्र भी एक प्रकार का सहकारी संगठन है। किन्तु हमारा जनतंत्र वांछनीय रूप से सफ़ल नहीं कहा जा सकता क्योंकि जनता तथा शासकों के बीच भाषा भेद के कारण तथा अशिक्षा के कारण वांछनीय संचार नहीं है, विचारों का आदान प्रदान नहीं है, तब जनतंत्र के स्थान पर भ्रष्ट तन्त्र ही होगा। इसलिये राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विकास हेतु नागरिकों द्वारा शासन में प्रभावी सहयोग के लिये उनमें आपस में संचार होना अनिवार्य है। इसे सहकारिता द्वारा अधिक प्रभावी ढ़ंग से किया जा सकता है। देश की समस्या और समाधानों पर विचार करने के लिये विशेष सहकारी समितियों की स्थापना की जा सकती है। इन समितियों का उद्देश्य समाज हित, देशहित या मानवहित होना चाहिये नकि, उदाहरणार्थ, यूनियन के समान एक विशेष वर्ग का हित।
सहकारिता का कार्य क्षेत्र बढ़ रहा है। ज्ञान की खोज में भी सहकारिता का प्रभावी उपयोग हो सकता है; यह निश्चित ही व्यावसायिक कार्य नहीं है। जब किसी अवधारणा के विषय में अनेक भिन्न मान्यताएं व्याप्त हों जो एक दूसरे से मेल नहीं खातीं, तब विभिन्न विचारक यदि सहकारिता के तहत 'वादे वादे जायते तत्वबोध:' के द्वारा एक, यदि सर्वमान्य नहीं तो, बहुमत मान्य 'समझ' या परिभाषा निष्कर्षरूप में स्वीकारें तब बहुत सारे भ्रम दूर किये जा सकते हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं। मेरी समझ में अधिकांश भारतीयों के मन में एक प्रश्न या संशय बना रहता है - 'धर्म निरपेक्षता का क्या अर्थ है? क्या 'धर्म निर्पेक्षता 'सैक्युलर' शब्द का सही अर्थ है ? उसका सही अर्थ स्थापित करने के बाद बहुत सम्भव है कि सुधार करने के लिये न्यायालय की शरण जाना पड़े, जिसमें धन की आवश्यकता निश्चित ही होगी। इस सहकारी समिति में आर्थिक लाभ के स्थान पर व्यय ही होगा। अत: इसका हल निकालने के लिये देशप्रेमी विद्वानों तथा विशेषज्ञों की सहकारी समिति की आवश्यकता मुझे दिखती है। वे अन्य विशेषज्ञों और विद्वानों की सलाह भी ले सकते हैं। किसी एक के बूते यह समस्या नहीं स्पष्ट होने वाली और न एक व्यक्ति उसके निर्णय पर कार्य कर सकता है, क्योंकि वह बहुत खर्चीला और श्रमसाध्य कार्य होगा। मुझे लगता है कि इसी कारण से यह विवादित विषय उलझा पड़ा है। अब और विलम्ब नहीं होना चाहिये। इसी तरह जनतंत्र में अल्पसंख्यकों के, पिछड़े वर्ग के अधिकार, शिक्षा में भाषा का चुनाव आदि अवधारणाओं पर भी वाद विवाद होना आवश्यक है कि तत्वबोध हो सके और हम जनतंत्र के विकास के लिये सही मार्ग अपना सकें।
6. जब से मनुष्य का आविर्भाव हुआ है सहयोग और सहकारिताके बल पर ही उसने अधिक शक्तिशाली खूंख्वार जानवरों से अपनी रक्षा की है, वरन अब उनकी रक्षा कर रहा है। हमारा जीवन सहकारी सिद्धान्तों पर ही जीवित है और विकास कर रहा है। हमें आनुवंशिकी में प्राप्त सहकार के विकास करने के लिये मानवीय संस्कृति' और शासकीय दण्ड आवश्यक हैं। सुसंस्कृत होने की क्षमता भी हमें प्रकृति ने दी है, और दण्ड से भय खाने की भी। इससे सामाजिक समृद्धि तथा सुख बढ़ता है। इतिहास साक्षी है कि जब भी कुछ दलों ने सहकारिता छोड़कर, स्वार्थी रास्ता अपनाया है, युद्ध हुए हैं, विनाश हुआ है और प्रगति में बाधा आई है। आज के वैज्ञानिक युग के खुले बाजार के आयुधों से सुसज्जित विश्वग्राम में यदि सहयोग/ सहकारिता कम होगी तब मानव जाति की सभ्यता ही संकट में पड़ जाएगी क्योंकि तब मनुष्य ही क्या राष्ट्र भी 'अपने' भोग के लिये भ्रष्टाचार करेंगे, जैसा कि कुछ तो आज भी कर ही रहे हैं। दूसरी ओर यह सहकार आंदोलन सफ़ल होने पर भी समस्याओं से घिरा रहेगा क्योंकि इसकी मूलभूत जीवन दृष्टि ही अपूर्ण है। इस सभ्यता पर आ रहे संकट से या समस्याओं से बचने के लिये हमें उपनिषदों में सुझाए गए मूल्यों को स्वीकारना होगा।
सहकारिता में कुछ मात्रा में मानव हित की भावना सन्निहित है, किन्तु, एक तो, इसमें क्न्ज़्यूमैरिज़म अर्थात भोगवाद का सीमित ही विरोध है - जो मात्र मानव की सुरक्षा तक के प्रकृति संरक्षण तक ही सीमित है, सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण नहीं। दूसरे पश्चिम की सुख की अवधारणा में भोग के लिये अतीव उत्कण्ठा, तथा कामातुरता ही परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवन के चरम लक्ष्य हैं। भारतीय दर्शन तो समग्र मानव जाति, प्रकृति सहित समग्र विश्व के लिये सुख की कामना करता है - सर्वे भवन्तु सुखिन:, और उसके सुख की अवधारणा में भोग की उत्कण्ठा नहीं, वरन भोग पर नियंत्रण है, भोग के परे आनंद उसका चरम लक्ष्य है। इसके लिये सहकारिता के मूल्यों में हम ईशावस्य उपनिषद के मंत्र के इस मूल्य 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' अर्थात 'भोगवाद को छोड़कर त्यागमय भोग' अपनाना होगा।
. . . . . . . . . . . . । विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से.नि.)
ई १४३, सैक्टर २१, नौएडा, २०१३०१