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समाज के उच्च आदर्श, मान्यताएं, नैतिक मूल्य और परम्पराएँ कहीं लुप्त होती जा रही हैं। विश्व गुरु रहा वो भारत इंडिया के पीछे कहीं खो गया है। ढून्ढ कर लाने वाले को पुरुस्कार कुबेर का राज्य। (निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/ अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpan पर इमेल/चैट करें, संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, 9999777358.

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: : : क्या आप मानते हैं कि अपराध का महिमामंडन करते अश्लील, नकारात्मक 40 पृष्ठ के रद्दी समाचार; जिन्हे शीर्षक देख रद्दी में डाला जाता है। हमारी सोच, पठनीयता, चरित्र, चिंतन सहित भविष्य को नकारात्मकता देते हैं। फिर उसे केवल इसलिए लिया जाये, कि 40 पृष्ठ की रद्दी से क्रय मूल्य निकल आयेगा ? कभी इसका विचार किया है कि यह सब इस देश या हमारा अपना भविष्य रद्दी करता है? इसका एक ही विकल्प -सार्थक, सटीक, सुघड़, सुस्पष्ट व सकारात्मक राष्ट्रवादी मीडिया, YDMS, आइयें, इस के लिये संकल्प लें: शर्मनिरपेक्ष मैकालेवादी बिकाऊ मीडिया द्वारा समाज को भटकने से रोकें; जागते रहो, जगाते रहो।।: : नकारात्मक मीडिया के सकारात्मक विकल्प का सार्थक संकल्प - (विविध विषयों के 28 ब्लाग, 5 चेनल व अन्य सूत्र) की एक वैश्विक पहचान है। आप चाहें तो आप भी बन सकते हैं, इसके समर्थक, योगदानकर्ता, प्रचारक,Be a member -Supporter, contributor, promotional Team, युगदर्पण मीडिया समूह संपादक - तिलक.धन्यवाद YDMS. 9911111611: :

Monday, January 17, 2011

सहकारिता - कल. आज और कल---------------------------. . . . . . . . . . . . विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से.नि.)

विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक


1. कल्पना करें आज से पच्चीस हजार वर्ष पहले की जब आदमी मुख्यतया शिकार पर ही जीवन यापन करता था। मनुष्य की अपेक्षा सृष्टि के अनेक अन्य जानवर उससे कहीं अधिक सशक्त रहे हैं। बाघ या सिंह वन में राज्य करते रहे हैं; तब यह उनसे दुर्बल जीव मनुष्य कैसे अपनी रक्षा कर पाया, और उन सशक्त जानवरों का भी राजा बन गया? जंगल में जहां उसे हिरन या मोर आदि का शिकार करने जाना होता था, वहां तो इऩ्हीं आक्रामक और शक्तिशाली जानवरों का राज्य होता था। तब वह वहां कैसे आखेट के लिये अकेले जा सकता ! उसे तो दल बनाकर ही‌ जाना पड़ता होगा, ताकि चारों दिशाओं पर (वैसे तो छह दिशाएं कहना चाहिये - एक ऊपर क्योंकि झाड़ों पर से भी आक्रमण हो सकते थे - और नीचे सरी सृपों से रक्षा के लिये) चौकस रखी‌ जा सके। यदि शारीरिक रूप से दुर्बल मानव जाति इन भयंकर जंतुओं के रहते अपनी रक्षा तथा योग क्षेम मात्र लाठी तथा पत्थरों से कर सकी थी, तब इसमें संदेह नहीं होना चाहिये कि यह 'सहयोग' या सहकार से ही हुआ। सहयोग के तत्काल प्रतिदान की अपेक्षा नहीं होती सिवाय इसके कि 'शुभ कामनाएं' मिलें। किन्तु उस काल के आखेट में सहयोग में भी‌ कुछ स्पष्ट 'लेन देन' की भावना या मान्यता रहती होंगी, जैसे कि शिकार (हिरन) का मांस सभी‌ में‌ बँटता होगा, वास्तव में वह सहयोग अलिखित सहकार ही था, लिखित अनुबन्ध तो उन दिनों नहीं होते थे।

आखेट और रक्षा का यह सहयोग तथा सहकार हमारे जीन्स या आनुवंशिकी‌ में पर्याप्त मात्रा में‌ आ गया है; किन्तु इससे अधिक मात्रा में तो हमें स्वार्थमय योगक्षेम ही‌ मिला है, और सौभाग्य कि इससे भी अधिक हमें संतान प्रेम मिला है।

यह तो हमें मालूम है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी‌ है जैसे चींटी, मधुमक्खी आदि, क्योंकि इनके सदस्यों में समाज के हित के लिये कार्य, स्व की देखभाल के अतिरिक्त, बँटे रहते हैं। और इसीलिये, यह गुण न होने के कारण, बाघ, सिंह, बिल्ली आदि सामाजिक प्राणी नहीं हैं। भेडिये, जंगली‌ कुत्ते आदि को हम अर्ध सामाजिक कह सकते हैं, क्योंकि इनमें‌ सहयोग शिकार करने तक ही सीमित होता है। किन्तु यह दृष्टव्य है कि समाज का लाभ सभी प्राणी उठाते हैं, और समाज को लाभ भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, सभी प्राणी पहुँचाते हैं। इसलिये वर्गवादी दृष्टि की अपेक्षा समग्र या समग्रतर दृष्टि अधिक वांछनीय है।

2. सहयोग तथा सहकार में बारीक अंतर है, क्योंकि बिना सहयोग की‌ भावना के सहकार नहीं हो सकता। एक तो सहयोग अनौपचारिक है, और सहकार औपचारिक जिसमें नियम या अनुबन्ध भी होते हैं। किसी कार्य को लिखित साझारूप से आपस के लाभ के लिये करना सहकार है। सहकार में साझा व्यक्तियों के उद्देश्य तथा कार्य विधि में सहमति होना आवश्यक है। सहयोग में करने वाले को किसी अन्य लाभ की अपेक्षा नहीं होती, जब कि सहकार में लाभ या हानि बाँटी जाती है। सहयोग करने वाले पक्षों के बीच घनिष्ठता तथा मैत्री होती‌ है, यद्यपि यह अनिवार्य नहीं, जब कि सहकार में मैत्री की‌ भावना आवश्यक है। जब भिन्न लोगों के ध्येय या उद्देश्य में समानता हो तब उनमें भी सहयोग हो सकता है। जब कुछ दल या लोग मिलकर किसी‌ मित्र को ही धोखा देकर अपना लाभ कमाएं तब वह सहकार उनके बीच मिलीभगत कहलाता है। जब कोई अधिक समर्थ अपने किसी मित्र या संबन्धी मातहत की अनैतिक सहायता करता है तब उस सहयोग को सरपरस्ती कहते हैं। सहकार में सहयोग के गुणदोष आ सकते हैं। यद्यपि सभी प्रकार की सहायता या दान सहयोग कहलाया जा सकता है, तथापि किसी के द्वारा भी‌ कार्य किये जा रहे ध्येय के साथ यदि आपकी सहमति या सहानुभूति है, और देश काल के थोड़े बड़े स्तर पर जब उसकी आप जो सहायता करेंगे, उसे सहयोग कहा जाएगा। इस तरह हम देखते हैं कि सहायता की अपेक्षा सहयोग देश काल के थोड़े बड़े स्तर पर होता है।

सहकारी संस्था : आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं तथा उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्वेच्छा से संगठित, जनतांत्रिक पद्धति से चालित एवं सभी सदस्यों के स्वामित्व में कार्यरत स्वायत्त संस्था सहकारी संस्था कहलाती है। संस्था का स्वायत्त रहना प्रत्येक दशा में अनिवार्य है अन्यथा संगठन अपने मार्ग से भटक सकता है। यदि कार्य करने के लिये धन की आवश्यकता हो तब संगठन के सदस्य बराबरी से धन का निवेश करते हैं, और हानि लाभ भी बराबरी से बाँटते हैं। ऐसी संस्थाएं अपनी सफ़लता के लिये कुछ जीवन मूल्यों के अनुपालन की माँग करती हैं, यथा, सच्चाई, जनतंत्र, न्याय, एकता, खुलापन, सामाजिक उत्तरदायित्व तथा समाज - सेवाभाव आदि। इसकी कार्यपद्धति सहकारिता तथा विचारप्रणाली सहकारवाद कहलाती है। सहकारी का मुख्य उद्देश्य हिस्सेदारों को अधिकतम लाभ देना नहीं, वरन अपने ग्राहकों या लक्ष्य मनुष्यों को मूल्यवान सेवा देना है। यह वे तभी कर सकते हैं कि जब वे स्वयं मानवीय जीवनमूल्यों पर आचरण करें। अत: सदस्यों का सहकारी विचारधारा में शिक्षित होना भी आवश्यक है। सहकारी संगठन अनेक प्रकार के होते हैं, यथा, गृह निर्माण, विक्रय, कर्मचारी, उपभोक्ता, किसान, मजदूर, महिला जागरण, शिक्षण, जिज्ञासा, प्रकृति संरक्षण इत्यादि।

3. सहकारिता तथा प्रेम में गहरा सम्बन्ध है। वैसे तो 'लगाव' से ही लोग आपस में जुड़ सकते हैं, और कार्य भी कर सकते हैं, किन्तु लगाव में वह सेवा भाव नहीं हो पाता जैसा कि प्रेम में‌ होता है। प्रेम सहज ही सहायता करने की प्रेरणा और शक्ति देता है। प्रेम सहकारिता की शक्ति को और सुदृढ़ करता है। बिना प्रेम के सहायता या सहकारिता निरी व्यावसायिक कहलाती‌ है। सहकारिता सफ़लता के लिये 'नैतिकता' की‌ मांग करती है, अन्यथा इसमें अक्सर एक पक्ष की स्वार्थ सिद्धि तो हो सकती है, किन्तु दोनों पक्षों के लाभ की सही सिद्धि शायद ही हो; किन्तु थोड़ा सा भी प्रेम होने पर दोनों पक्षों के उचित स्वार्थ की सिद्धि हो सकती है। ग्वाला प्रेम होने पर नकली दूध तो नहीं बेचेगा। दान की अपेक्षा रखने वाले विद्वान साधुओं के भी संगठन होते हैं, जिनकी कार्य पद्धति 'सहकारी' नहीं होती, उनके प्रवचन व्यवसाय नहीं‌ वरन सहायता हैं क्योंकि वह श्रोताओं के जीवन के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हैं और सुखी जीवन के लिये सहायता करते हैं, उनमें आपके लिये प्रेम है, उनका कार्य व्यवसाय नहीं‌ है, यद्यपि इसके अपवाद भी होते हैं। अपने लाभ के लिये स्वकेन्द्रित व्यक्ति हानिकारक चिप्स तथा कोला भी बेचेगा या बिकवाएगा चाहे वह कोला की कम्पनी या आपका प्रिय क्रिकैट का हीरो या फ़िल्मों का हीरो क्यों न हों, उनसे हमें सावधान ही रहना चाहिये क्योंकि इस तरह यह सच्ची सहायता नहीं, वरन लूटने वाला व्यापार हैं, वे आपकी सहृदयता का शोषण कर रहे हैं!!

सहकारिता का कार्यक्षेत्र बहुत विशाल तथा गहरा है। पति पत्नी का जोड़ा परिवार की इकाई है, जो संतान का पालन पोषण कर सृष्टि को चलाता है। भारतीय परम्परा में वैवाहिक सम्बन्ध संस्कारों पर आधारित होते हैं; किन्तु आजकल पति पत्नी के संबन्ध भी 'सहकारिता' के अन्दर आने लगे हैं क्योंकि वे एक तरह के कानूनी अनुबन्ध हो रहे हैं। यदि इनमें प्रेम या सहयोग या सहकारिता (अनुबन्ध विवाह में) न हो तो पति पत्नी तो दुखी होंगे ही, सृष्टि ही दुखी हो जाए। पति तथा पत्नी के बीच सहयोग या सहकारिता सहज है भी और नहीं भी। सहज इस अर्थ में है कि पुरुष और नारी में सहज आकर्षण तो होता है और वे एक दूसरे की सहायता सहर्ष कर सकते हैं। किन्तु अक्सर यह आकर्षण अपने भोग के लिये ही सहयोग उत्पन्न करता है, अत: उसमें स्थायित्व कठिनाई से ही आ सकता है। अतएव उसे अपेक्षाकृत स्थायी बनाने के लिये संस्कृति और समाज उनके बीच सच्चा प्रेम उत्पन्न कराते हैं, वरना यह जीवन चक्र सुचारु रूप से नहीं चल सकता। माता पिता तथा संतान के बीच प्रेम या सहयोग या सहकारिता (दुर्भाग्य ही कहना पड़ेगा कि, बच्चों के मानवाधिकार के नाम पर इस पावन संबन्ध को भी 'अनुबन्ध' बनाया जा रहा है) इतनी अधिक महत्वपूर्ण है कि प्रकृति ने इसे तो सहज या जन्मजात बना दिया है, तब भी संस्कृति का कार्य इसमें भी महत्वपूर्ण है।

सहकारिता के बिना न तो यह शारीरिक रूप से दुर्बल मनुष्य अपनी रक्षा कर पाता और न अपना विकास, क्योंकि आदिम काल में‌ तो पहले उसके पास लाठी और पत्थर के अतिरिक्त हथियार भी‌ नहीं थे। यह तो स्पष्ट है कि सहकारिता पर आएधारित ज्ञान और प्रौद्योगिकी के बिना न तो विद्युत, यांत्रिक वाहन, विमान, उपग्रह, मोबाइल फ़ोन, टीवी, चिकित्सा, नगर आदि होते और न यह सभ्यता होती। किन्तु मानव समाज की संस्कृति कैसे भ्रष्ट हो गई? जैसे ही सहकारिता निरी व्यावसायिकता में बदल गई, वैसे ही संस्कृति भोगवादी संस्कृति बन ग़ई। आज मनुष्य न केवल हाथियों और सिंहों पर राज्य कर रहा है, वरन अपनी सफ़लता के घमण्ड पर अपने को प्रकृति का स्वामी समझ कर उसका विनाश कर रहा है। उसने न केवल पाँचों तत्वों - आकाश, वायु, अग्नि, जल और मिट्टी (पृथ्वी) को प्रदूषित कर दिया है, वरन छठवां तत्व हमारा मन भी‌ प्रदूषित कर दिया है।

4. यूरोप में नवजागरण काल में सोलहवीं शती में उद्योगपतियों‌ या व्यवासाइयों के 'गिल्ड' हुआ करते थे जो उद्योग या व्यापार के नियम बनाया करते थे और उनका सभी घटकों में पालन भी देखते थे; किन्तु वह आधुनिक अर्थों में 'सहकारिता' नहीं थी। अधिकांश विद्वान यह कहते हैं कि सहकारिता तो ब्रिटैन की औद्योगिक क्रान्ति पर प्रतिक्रिया की बीसवीं सदी की उपज है। किन्तु यह सुखद तथ्य है कि सहकारिता के विषय में विश्व में सर्वप्रथम श्रमिकों के संगठन, उद्योगपतियों‌ या व्यवसाइयों, तथा गिल्ड, और सहकारिता के नियमों‌ की जानकारी चाणक्य (३३० ईसा पूर्व) द्वारा रचित 'अर्थशास्त्र ' (आर्थिक शास्त्र नहीं, वरन शासन संहिता) में‌ मिलती है और वह भी पर्याप्त विकसित रूप में। शासन निजी तथा शासकीय उद्योगों के कार्यों के सुचालन में उपयुक्त नियमों के बनाने तथा कार्यान्वयन में सक्रिय योगदान करता था।

आजकल अनेक विशाल उद्योग, दूकानें, बैन्क आदि सहकारिता के आधार पर चल रहे हैं, अधिकांशतया, इनके सदस्य उपभोक्ता होते हैं। विदेशों में‌ यह अधिकांशत: सफ़ल हैं किन्तु एशिया में‌ कम ही सफ़ल हैं। सहकारिता को इस देश में भी वांछनीय मह्त्व या सम्मान नहीं मिलता। सोचने की बात है कि सहकारिता की इस नगण्य प्रगति में हमारा चरित्र ही प्रमुख कारण है या इसमें पहले रूसी सोच पर आधारित समाजवाद (संक्षेप में‌ कहें तो यूनिअनिज़म) ने इसका विरोध किया, और बाद में खुले बाजार के पूँजीवाद ने। जब विश्व में इसके तहत खरबों डालर का कार्य सुचारु और व्यवस्थित रूप से चल रहा है, तब हम भी समस्याओं के हल निकाल सकते हैं, किन्तु वे मूलभूत विचार में कमी के कारण सीमित फ़िर भी रहेंगे। सहकारिता के कार्य में कार्मिकों में दक्षता के साथ उपरोक्त मूल्य, यथा, सच्चाई, सेवाभाव, कर्तव्यनिष्ठा आदि अत्यंत आवश्यक हैं। यह चरित्र का विषय तो है ही, किन्तु साथ ही व्यक्ति की समग्र जीवन दृष्टि का भोगवादी‌ न होकर 'त्यागमय- भोगवादी' होना भी आवश्यक है।

5. सहाकारिता की दृष्टि मानवीय हो सकती है, न तो यह आवश्यक रूप से पूँजीवादी है और न साम्यवादी। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, यदि इसमें सहकारी संस्था का प्रमुख ध्येय 'लाभ कमाना ' नहीं है। दूसरे यह केवल मजदूरों या किसी एक वर्ग का ही हित नहीं देखती, और न उनके द्वारा राज्य संचालन की माँग करती‌ है। पूँजीवाद में पैसे की‌ गुलामी है, इसमें शक्ति का सदुपयोग (!) धन बनाने के लिये किया किया जाता है, जो अनंत और स्वीकार्य भ्रष्टाचार को जन्म देता है और जनतंत्र को नपुंसक बनाता है। और साम्यवाद में वैचारिक तथा संकेन्द्रित सत्ता की गुलामी है और इनका काडर- माफ़िया नागरिकों पर हावी रहता है। और दोनों ही दर्शन भोगवादी हैं। देखा जाए तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों‌ ही सच्चे अर्थों में‌ मानववादी‌ नहीं‌ हैं। सहकारिता तो, पूँजीपति हों‌ या मजदूर हों, सदस्यों सहित सभी समाज का हित देखती है। इसमें क्या आश्चर्य कि सन २००२ में संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्विशेष सभा में यह स्वीकारा गया कि सहकारिता आर्थिक समृद्धि तथा समाजिक न्याय एवं विकास में‌ मह्त्वपूर्ण योगदान देती है, और उऩ्होंने विश्व के देशों से अनुरोध किया कि वे इस सहकारिता के द्वारा समाज की आर्थिक, सामाजिक उन्नति करें। इसके महत्व को देखते हुए सं. रा. संघ ने वर्ष २०१२ को सहकारिता का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है।

यदि हम और भी विशाल परिप्रेक्ष्य में देखें तब जनतंत्र भी एक प्रकार का सहकारी संगठन है। किन्तु हमारा जनतंत्र वांछनीय रूप से सफ़ल नहीं कहा जा सकता क्योंकि जनता तथा शासकों के बीच भाषा भेद के कारण तथा अशिक्षा के कारण वांछनीय संचार नहीं है, विचारों का आदान प्रदान नहीं‌ है, तब जनतंत्र के स्थान पर भ्रष्ट तन्त्र ही होगा। इसलिये राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विकास हेतु नागरिकों द्वारा शासन में प्रभावी सहयोग के लिये उनमें आपस में संचार होना अनिवार्य है। इसे सहकारिता द्वारा अधिक प्रभावी ढ़ंग से किया जा सकता है। देश की समस्या और समाधानों पर विचार करने के लिये विशेष सहकारी समितियों की स्थापना की‌ जा सकती है। इन समितियों का उद्देश्य समाज हित, देशहित या मानवहित होना चाहिये नकि, उदाहरणार्थ, यूनियन के समान एक विशेष वर्ग का हित।

सहकारिता का कार्य क्षेत्र बढ़ रहा है। ज्ञान की खोज में भी‌ सहकारिता का प्रभावी उपयोग हो सकता है; यह निश्चित ही व्यावसायिक कार्य नहीं है। जब किसी अवधारणा के विषय में अनेक भिन्न मान्यताएं व्याप्त हों जो एक दूसरे से मेल नहीं खातीं, तब विभिन्न विचारक यदि सहकारिता के तहत 'वादे वादे जायते तत्वबोध:' के द्वारा एक, यदि सर्वमान्य नहीं तो, बहुमत मान्य 'समझ' या परिभाषा निष्कर्षरूप में स्वीकारें तब बहुत सारे भ्रम दूर किये जा सकते हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं। मेरी समझ में अधिकांश भारतीयों के मन में एक प्रश्न या संशय बना रहता है - 'धर्म निरपेक्षता का क्या अर्थ है? क्या 'धर्म निर्पेक्षता 'सैक्युलर' शब्द का सही अर्थ है ? उसका सही अर्थ स्थापित करने के बाद बहुत सम्भव है कि सुधार करने के लिये न्यायालय की शरण जाना पड़े, जिसमें धन की आवश्यकता निश्चित ही होगी। इस सहकारी समिति में आर्थिक लाभ के स्थान पर व्यय ही होगा। अत: इसका हल निकालने के लिये देशप्रेमी विद्वानों तथा विशेषज्ञों की सहकारी समिति की आवश्यकता मुझे दिखती है। वे अन्य विशेषज्ञों और विद्वानों की सलाह भी‌ ले सकते हैं। किसी एक के बूते यह समस्या नहीं स्पष्ट होने वाली और न एक व्यक्ति उसके निर्णय पर कार्य कर सकता है, क्योंकि वह बहुत खर्चीला और श्रमसाध्य कार्य होगा। मुझे लगता है कि इसी कारण से यह विवादित विषय उलझा पड़ा है। अब और विलम्ब नहीं होना चाहिये। इसी तरह जनतंत्र में अल्पसंख्यकों के, पिछड़े वर्ग के अधिकार, शिक्षा में‌ भाषा का चुनाव आदि अवधारणाओं पर भी वाद विवाद होना आवश्यक है कि तत्वबोध हो सके और हम जनतंत्र के विकास के लिये सही मार्ग अपना सकें।

6. जब से मनुष्य का आविर्भाव हुआ है सहयोग और सहकारिताके बल पर ही उसने अधिक शक्तिशाली खूंख्वार जानवरों से अपनी रक्षा की है, वरन अब उनकी रक्षा कर रहा है। हमारा जीवन सहकारी सिद्धान्तों पर ही जीवित है और विकास कर रहा है। हमें आनुवंशिकी‌ में प्राप्त सहकार के विकास करने के लिये मानवीय संस्कृति' और शासकीय दण्ड आवश्यक हैं। सुसंस्कृत होने की क्षमता भी‌ हमें‌ प्रकृति ने दी‌ है, और दण्ड से भय खाने की भी। इससे सामाजिक समृद्धि तथा सुख बढ़ता है। इतिहास साक्षी है कि जब भी कुछ दलों ने सहकारिता छोड़कर, स्वार्थी रास्ता अपनाया है, युद्ध हुए हैं, विनाश हुआ है और प्रगति में बाधा आई है। आज के वैज्ञानिक युग के खुले बाजार के आयुधों से सुसज्जित विश्वग्राम में यदि सहयोग/ सहकारिता कम होगी तब मानव जाति की सभ्यता ही संकट में पड़ जाएगी क्योंकि तब मनुष्य ही क्या राष्ट्र भी 'अपने' भोग के लिये भ्रष्टाचार करेंगे, जैसा कि कुछ तो आज भी कर ही रहे हैं। दूसरी ओर यह सहकार आंदोलन सफ़ल होने पर भी समस्याओं से घिरा रहेगा क्योंकि इसकी मूलभूत जीवन दृष्टि ही अपूर्ण है। इस सभ्यता पर आ रहे संकट से या समस्याओं से बचने के लिये हमें उपनिषदों में सुझाए गए मूल्यों को स्वीकारना होगा।

सहकारिता में कुछ मात्रा में मानव हित की‌ भावना सन्निहित है, किन्तु, एक तो, इसमें क्न्ज़्यूमैरिज़म अर्थात भोगवाद का सीमित ही विरोध है - जो मात्र मानव की सुरक्षा तक के प्रकृति संरक्षण तक ही सीमित है, सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण नहीं। दूसरे पश्चिम की सुख की अवधारणा में भोग के लिये अतीव उत्कण्ठा, तथा कामातुरता ही परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवन के चरम लक्ष्य हैं। भारतीय दर्शन तो समग्र मानव जाति, प्रकृति सहित समग्र विश्व के लिये सुख की‌ कामना करता है - सर्वे भवन्तु सुखिन:, और उसके सुख की अवधारणा में भोग की उत्कण्ठा नहीं, वरन भोग पर नियंत्रण है, भोग के परे आनंद उसका चरम लक्ष्य है। इसके लिये सहकारिता के मूल्यों में हम ईशावस्य उपनिषद के मंत्र के इस मूल्य 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' अर्थात 'भोगवाद को छोड़कर त्यागमय भोग' अपनाना होगा।


. . . . . . . . . . . . । विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से.नि.)

ई १४३, सैक्टर २१, नौएडा, २०१३०१

Monday, January 10, 2011

लाल बहादुर शास्त्री (जीवन आदर्श, प्रतिभा)

लाल बहादुर शास्त्री (जीवन आदर्श, प्रतिभा) 

लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्म शारदा श्रीवास्तव प्रसाद, स्कूल अध्यापक व रामदुलारी देवी. के घर मुगलसराय(अंग्रेजी शासन के एकीकृत प्रान्त), में हुआ जो बादमें अलाहाबाद [1] के रेवेनुए ऑफिस में बाबू हो गए ! बालक जब 3 माह का था गंगा के घाट पर माँ की गोद से फिसल कर चरवाहे की टोकरी (cowherder's basket) में जा गिरा! चरवाहे, के कोई संतान नहीं थी उसने बालक को इश्वर का उपहार मान घर ले गया ! लाल बहादुर के माता पिता ने पुलिस में बालक के खोने की सुचना लिखी तो पुलिस ने बालक को खोज निकला और माता पिता को सौंप दिया[2].
बालक डेढ़ वर्ष का था जब पिता का साया उठने पर माता उसे व उसकी 2 बहनों के साथ लेकर मायके चली गई तथा वहीँ रहने लगी[3]. लाल बहादुर 10 वर्ष की आयु तक अपने नाना हजारी लाल के घर रहे! तथा मुगलसराय के रेलवे स्कुल में कक्षा IV शिक्षा ली, वहां उच्च विद्यालय न होने के कारण बालक को वाराणसी भेजा गया जहाँ वह अपने मामा के साथ रहे, तथा आगे की शिक्षा हरीशचन्द्र हाई स्कूल से प्राप्त की ! बनारस रहते एक बार लाल बहादुर अपने मित्रों के साथ गंगा के दूसरे तट मेला देखने गए! वापसी में नाव के लिए पैसे नहीं थे! किसी मित्र से उधार न मांग कर, बालक लाल बहादुर नदी में कूदते हुए उसे तैरकर पार कर गए[4].
बाल्यकाल में, लाल बहादुर पुताकें पढ़ना भाता था विशेषकर गुरु नानक के verses. He revered भारतीय राष्ट्रवादी, समाज सुधारक एवं स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक .वाराणसी 1915 में महात्मा  गाँधी का भाषण सुनने के पश्चात् लाल बहादुर ने अपना जीवन देश सेवा को समर्पित कर दिया[5] !  महात्मा  गाँधी के असहयोग आन्दोलन 1921 में लाल बहादुर ने निषेधाज्ञा का उलंघन करते प्रदर्शनों में भाग लिया ! जिस पर उन्हें बंदी बनाया गया किन्तु अवयस्क होने के कारण छूट गए[6] ! फिर वे काशी विद्यापीठ वाराणसी में भर्ती हुए! वहां के 4 वर्षों में वे डा. भगवान दास के lectures on philosophy से अत्यधिक प्रभावित हुए! तथा राष्ट्रवादी में भर्ती हो गए ! काशी विद्यापीठ से 1926, शिक्षा पूरी करने पर उन्हें शास्त्री की उपाधि से विभूषित किया गया जो विद्या पीठ की सनातक की उपाधि  है, और उनके नाम का अंश बन गया[3] ! वे सर्वेन्ट्स ऑफ़ द पीपल सोसाईटी आजीवन सदस्य बन कर मुजफ्फरपुर में हरिजनॉं के उत्थान में कार्य करना आरंभ कर दिया बाद में संस्था के अध्यक्ष भी बने[8].
1927 में, जब शास्त्री जी का शुभ विवाह मिर्ज़ापुर की ललिता देवी से संपन्न हुआ तो भारी भरकम दहेज़ का चलन था किन्तु शास्त्रीजी ने केवल एक चरखा व एक खादी  का कुछ गज का टुकड़ा  ही दहेज़ स्वीकार किया ! 1930 में,महात्मा  गाँधी के नमक सत्याग्रह के समय वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े, तथा ढाई वर्ष का कारावास हुआ[9]. एकबार, जब वे बंदीगृह में थे, उनकी एक बेटी गंभीर रूप से बीमार हुई तो उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग न लेने की शर्त पर 15 दिवस की सशर्त छुट्टी दी गयी ! परन्तु उनके घर पहुँचने से पूर्व ही बेटी का निधन हो चूका था ! बेटी के अंतिम संस्कार पूरे कर, वे अवधि[10] पूरी होने से पूर्व ही स्वयं कारावास लौट आये !  एक वर्ष पश्चात् उन्होंने एक सप्ताह के लिए घर जाने की अनुमति मांगी जब उनके पुत्र को influenza हो गया था ! अनुमति भी मिल गयी किन्तु पुत्र एक सप्ताह मैं निरोगी नहीं हो पाया तो अपने परिवार के अनुग्रहों (pleadings, के बाद भी अपने वचन के अनुसार वे कारावास लौट आये[10].
8 अगस्त 1942, महात्मा गाँधी ने मुंबई के गोवलिया टेंक में अंग्रेजों भारत छोडो की मांग पर भाषण दिया ! शास्त्री जी जेल से छूट कर सीधे पहुंचे जवाहरलाल नेहरु के hometown अल्लहाबाद और आनंद  भवन से एक सप्ताह स्वतंत्रता सैनानियों को निर्देश देते रहे ! कुछ दिन बाद वे फिर बंदी बनाकर कारवास भेज दिए गए और वहां रहे 1946 तक[12], शास्त्री जी कुलमिला कर 9 वर्ष जेल में रहे [13]. जहाँ वे पुस्तकें पड़ते रहे और इसप्रकार पाश्चात्य western philosophers, revolutionaries and social reformer की कार्य प्रणाली से अवगत होते रहे ! तथा मारी कुरी की autobiography का हिंदी अनुवाद भी किया[9].
आज़ादी के बाद 
भारत आजाद होने पर, शास्त्री जी अपने गृह प्रदेश उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव नियुक्त किये गए! गोविन्द  बल्लभ  पन्त के मंत्री मंडल के पुलिस व यातायात मंत्री बनकर पहली बार महिला कन्डक्टर की नियुक्ति की ! पुलिस को भीड़ नियंत्रण हेतु उन पर लाठी नहीं पानी की बौछार का उपयोग के आदेश दिए[14].
1951 में राज्य सभा सदस्य बने तथा कांग्रेस महासचिव के नाते चुनावी बागडोर संभाली, तो 1952, 1957 व 1962 में प्रत्याशी चयन, प्रचार द्वारा जवाहरलाल  नेहरु को संसदीय चुनावों में भारी बहुमत प्राप्त हुआ! केंद्र में 1951 से 1956 तक रेलवे व यातायात मंत्री रहे, 1956 में महबूबनगर की रेल दुर्घटना में 112 लोगों की मृत्यु के पश्चात् भेजे शास्त्रीजी के त्यागपत्र को नेहरुजी ने स्वीकार नहीं किया[15]! किन्तु 3 माह पश्चात् तमिलनाडू के अरियालुर दुर्घटना (मृतक 114) का नैतिक व संवैधानिक दायित्व मान कर दिए त्यागपत्र को स्वीकारते नेहरूजी ने कहा शास्त्री जी इस दुर्घटना के लिए दोषी नहीं[3] हैं किन्तु इससे संवैधानिक आदर्श स्थापित करने का आग्रह है ! शास्त्री जी के अभूत पूर्व निर्णय की की देश की जनता ने भूरी भूरी प्रशंसा की ! 
1957 में, शास्त्री जी संसदीय चुनाव के पश्चात् फिर मंत्रिमंडल में लिए गए, पहले यातायात व संचार मंत्री, बाद में वाणिज्य व उद्योग मंत्री[7] तथा 1961 में गृह मंत्री बने[3] तब क.संथानम[16] 
की अध्यक्षता में भ्रष्टाचार निवारण कमिटी गठित करने में भी विशेष भूमिका रही ! 
प्रधान मंत्री 
लाल बहादुर शास्त्री जी का नेतृत्व 
27 मई 1964 जवाहरलाल नेहरु की मृत्यु से उत्पन्न रिक्तता को 9 जून को भरा गया जब कांग्रेस अध्यक्षक. कामराज ने  प्रधान मंत्री पद के लिए एक मृदु भाषी, mild-mannered नेहरूवादी शास्त्री जी को उपयुक्त पाया तथा इसप्रकार पारंपरिक दक्षिणपंथी मोरारजी देसाई का विकल्प स्वीकार हुआ ! प्रधान मंत्री के रूप में राष्ट्र के नाम प्रथम सन्देश में शास्त्री जी ने को कहा[17]
हर राष्ट्र के जीवन में एक समय ऐसा आता है, जब वह इतिहास के चौराहे पर खड़ा होता है और उसे अपनी दिशा निर्धारित करनी होती है !.किन्तु हमें इसमें कोई कठिनाई या संकोच की आवश्यकता नहीं है! कोई इधर उधर देखना नहीं हमारा मार्ग सीधा व स्पष्ट है! देश में सामाजिक लोकतंत्र के निर्माण से सबको स्वतंत्रता व वैभवशाली बनाते हुए विश्व शांति तथा सभी देशों के साथ मित्रता !
शास्त्री जी विभिन्न विचारों में सामंजस्य निपुणता के बाद भी अल्प अवधि के कारण देश के अर्थ संकट व खाद्य संकट का प्रभावी हल न कर पा रहे थे ! परन्तु जनता में उनकी लोकप्रियता व सम्मान अत्यधिक था जिससे उन्होंने देश में हरित क्रांति लाकर खाली गोदामों को भरे भंडार में बदल दिया ! किन्तु यह देखने के लिए वो जीवित न रहे, पाकिस्तान से 22 दिवसीय युद्ध में, लाल बहादुर शास्त्री जी ने नारा दिया "जय जवान जय किसान" देश के किसान को सैनिक समान बना कर देश की सुरक्षा के साथ अधिक अन्न उत्पादन पर बल दिया! हरित क्रांति व सफेद (दुग्ध) क्रांति[16] के सूत्र धार शास्त्री जी अक्तू.1964 में कैरा जिले में गए उससे प्रभावित होकर उन्होंने आनंद का देरी अनुभव से सरे देश को सीख दी तथा उनके प्रधानमंत्रित्व काल 1965 में नेशनल देरी डेवेलोपमेंट बोर्ड गठन हुआ ! 
समाजवादी होते हुए भी उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था को किसी का पिछलग्गू नहीं बनाया[16]. अपने कार्य काल 1965[7] में उन्होंने भ्रमण किया रूसयुगोस्लावियाइंग्लैंडकनाडा व बर्मा
पाकिस्तान से युद्ध 
भारत पाकिस्तानी युद्ध 1965
पाकिस्तान ने आधे कच्छ, पर अपना अधिकार जताते अपनी सेनाएं अगस्त 1965 में भेज दी, which skirmished भारतीय टेंक की कच्छ की मुठभेढ़ पर लोक सभा में, शास्त्री जी का वक्तव्य[17]:
“ अपने सीमित संसाधनों के उपयोग में हमने सदा आर्थिक विकास योजना तथा परियोजनाओं को प्रमुखता दी है, अत: किसी भी चीज को सही परिपेक्ष्य में देखने वाला कोई भी समझ सकता है कि भारत की रूचि सीमा पर अशांति अथवा संघर्ष का वातावरण बनाने में नहीं हो सकती !... इन परिस्थितियों में सरकार का दायित्व बिलकुल स्पष्ट है और इसका निर्वहन पूर्णत: प्रभावी ढंग से किया जायेगा ...यदि आवश्यकता पड़ी तो हम गरीबी में रह लेंगे किन्तु देश कि स्वतंत्रता पर आँच नहीं आने देंगे!  ”
  ( It would, therefore, be obvious for anyone who is prepared to look at things objectively that India can have no possible interest in provoking border incidents or in building up an atmosphere of strife... In these circumstances, the duty of Government is quite clear and this duty will be discharged fully and effectively... We would prefer to live in poverty for as long as necessary but we shall not allow our freedom to be subverted.)
पाकिस्तान कि आक्रामकता का केंद्र है कश्मीर. जब सशस्त्र घुसपैठिये पाकिस्तान से जम्मू एवं कश्मीर राज्य में घुसने आरंभ हुए, शास्त्री जी ने पाकिस्तान को यह स्पष्ट कर दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से दिया जायेगा[18] अभी सित.1965 में ही पाक सैनिकों सहित सशस्त्र घुसपैठियों ने सीमा पार करते समय सब अपने अनुकूल समझा होगा, किन्तु ऐसा था नहीं और भारत ने भी युद्ध विराम रेखा (अब नियंत्रण रेखा) के पार अपनी सेना भेज दी है तथा युद्ध होने पर पाकिस्तान को लाहौर के पास अंतर राष्ट्रीय सीमा पर करने कि चेतावनी भी दे दी है! टेंक महा संग्राम हुआ पंजाब में , and while पाकिस्तानी सेनाओं को कहीं लाभ हुआ, भारतीय सेना ने भी कश्मीर का हाजी पीर का महत्त्व पूर्ण स्थान अधिकार में ले लिया है, तथा पाकिस्तानी शहर लाहौर पर सीधे प्रहार करते रहे! 
17 सित.1965, भारत पाक युद्ध के चलते भारत को एक पत्र  चीन से मिला. पत्र में, चीन ने भारतीय सेना पर उनकी सीमा में सैन्य उपकरण लगाने का आरोप लगाते, युद्ध की धमकी दी अथवा उसे हटाने को कहा जिस पर शास्त्री जी ने घोषणा की "चीन का आरोप मिथ्या है! यदि वह हम पर आक्रमण करेगा तो हम अपनी अपनी संप्रभुता की रक्षा करने में सक्षम हैं"[19]. चीन ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया किन्तु भारत पाक युद्ध में दोनों ने बहुत कुछ खोया है! .
भारत पाक युद्ध समाप्त 23 सित.  1965 को संयुक्त राष्ट्र-की युद्ध विराम घोषणा से हुआ. इस अवसर पर प्र.मं.शास्त्री जी ने कहा[17]:
“ दो देशों की सेनाओं के बीच संघर्ष तो समाप्त हो गया है संयुक्त राष्ट्र- तथा सभी शांति चाहने वालों के लिए अधिक महत्वपूर्ण है is to bring to an end the deeper conflict... यह कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? हमारे विचार से, इसका एक ही हल है शांतिपूर्ण सहा अस्तित्व! भारत इसी सिद्धांत पर खड़ा है; पूरे विश्व का नेतृत्व करता रहा है! उनकी आर्थिक व राजनैतिक विविधता तथा मतभेद कितने भी गंभीर हों, देशों में शांतिपूर्ण सहस्तित्व संभव है !  ” 
ताश कन्द का काण्ड 
युद्ध विराम के बाद, शास्त्री जी तथा  पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुहम्मद अयूब खान वार्ता के लिए ताश कन्द (अखंडित रूस, वर्तमान उज्बेकिस्तान) अलेक्सेई कोस्य्गिन के बुलावे पर 10 जन.1966 को गए, ताश कन्द समझौते पर हस्ताक्षर किये! शास्त्री जी को संदेह जनक परिस्थितियों में मृतक बताते, अगले दिन/रात्रि के 1:32 बजे [7]  हृदयाघट का घोषित किया गया ! यह किसी सरकार के प्रमुख की सरकारी यात्रा पर विदेश में मृत्यु की अनहोनी घटना है[20]
शास्त्री जी की मृत्यु का रहस्य ?
शास्त्री जी की रहस्यमय मृत्यु पर उनकी विधवा पत्नी ललिता शास्त्री  कहती रही कि उनके पति को विष दिया गया है. कुछ उनके शव का नीला रंग, इसका प्रमाण बताते हैं.शास्त्री जी को विष देने के आरोपी रुसके रसोइये को बंदी भी बनाया गया किन्तु वो प्रमाण के अभाव में बच गया[21]
2009 में, जब अनुज धर, लेखक CIA's Eye on South Asia, RTI में  (Right to Information Act) प्रधान मंत्री कार्यालय से कहा, कि शास्त्री जी की मृत्यु का कारण सार्वजानिक किया जाये, विदेशों से सम्बन्ध बिगड़ने की बात कह कर टाल दिया गया देश में असंतोष फैलने व संसदीय विशेषाधिकार का उल्लंघन भी बताया गया[21]
PMO ने इतना तो स्वीकार किया कि शास्त्री जी कि मृत्यु से सम्बंधित एक पत्र कार्यालय के पास है! सरकार ने यह भी स्वीकार किया कि शव की रूस USSR में post-mortem examination जाँच नहीं की गई, किन्तु शास्त्री जी के वैयक्तिगत चिकित्सक  डा. र.न.चुघ ने जाँच कर रपट दी थी! किस प्रकार हर सच को छुपाने का मूल्य लगता है और सच का झूठ / झूठ का सच यहाँ सामान्य प्रक्रिया है कुछ भ हो सकता है[21]
स्मृतिचिन्ह 
आजीवन सदाशयता व विनम्रता के प्रतीक माने गए, शास्त्री जी एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, व दिल्ली के "विजय घाट" उनका स्मृति चिन्ह बनाया गया ! अनेकों शिक्षण सस्थान, शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक संसथान National Academy of Administration (Mussorie) तथा शास्त्री इंडो -कनाडियन इंस्टिट्यूट अदि उनको समर्पित हैं[22]
"विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक

Saturday, January 1, 2011

One may celebrate even English New Year, panjabi, gujrati, telugu, malyalam.

पंजाबी ਅਂਗ੍ਰੇਜੀ ਕਾ ਨਵ ਵਰ੍ਸ਼, ਭਲੇ ਹੀ ਮਨਾਏਂ

 "ਅਂਗ੍ਰੇਜੀ ਕਾ ਨਵ ਵਰ੍ਸ਼, ਭਲੇ ਹੀ ਮਨਾਏਂ; ਉਮਂਗ ਉਤ੍ਸਾਹ, ਚਾਹੇ ਜਿਤਨਾ ਦਿਖਾਏਂ;ਚੈਤ੍ਰ ਕੇ ਨਵ ਰਾਤ੍ਰੇ, ਜਬ ਜਬ ਭੀ ਆਯੇਂ; ਘਰ ਘਰ ਸਜਾਏਂ, ਉਮਂਗ ਕੇ ਦੀਪਕ ਜਲਾਏਂ; ਆਨਂਦ ਸੇ, ਬ੍ਰਹ੍ਮਾਣ੍ਡ ਤਕ ਕੋ ਮਹਕਾਏਂ; ਵਿਸ਼੍ਵ ਮੇਂ, ਭਾਰਤ ਕਾ ਗੌਰਵ ਬਢਾਏਂ " ਅਂਗ੍ਰੇਜੀ ਕਾ ਨਵ ਵਰ੍ਸ਼ 2011, ਵ ਵਰ੍ਸ਼ ਕੇ 365 ਦਿਨ ਹੀ ਮਂਗਲਮਯ ਹੋਂ, ਭਾਰਤ ਭ੍ਰਸ਼੍ਟਾਚਾਰ ਵ ਆਤਂਕਵਾਦ ਸੇ ਮੁਕ੍ਤ ਹੋ, ਹਮ ਅਪਨੇ ਆਦਰ੍ਸ਼ ਵ ਸਂਸ੍ਕਰਤਿ ਕੋ ਪੁਨਰ੍ਪ੍ਰਤਿਸ਼੍ਠਿਤ ਕਰ ਸਕੇਂ ! ਇਨ੍ਹੀ ਸ਼ੁਭਕਾਮਨਾਓਂ ਕੇ ਸਾਥ, ਭਵਦੀਯ.. ਤਿਲਕ ਸਂਪਾਦਕ ਯੁਗਦਰ੍ਪਣ ਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰੀਯ ਸਾਪ੍ਤਾਹਿਕ ਹਿਂਦੀ ਸਮਾਚਾਰ-ਪਤ੍ਰ. 09911111611. ਪਤ੍ਰਕਾਰਿਤਾ ਵ੍ਯਵਸਾਯ ਨਹੀਂ ਏਕ ਮਿਸ਼ਨ ਹੈ-ਯੁਗਦਰ੍ਪਣ

गुजराती અંગ્રેજી કા નવ વર્ષ, ભલે હી મનાએં

 "અંગ્રેજી કા નવ વર્ષ, ભલે હી મનાએં; ઉમંગ ઉત્સાહ, ચાહે જિતના દિખાએઁ;ચૈત્ર કે નવ રાત્રે, જબ જબ ભી આયેં; ઘર ઘર સજાએઁ, ઉમંગ કે દીપક જલાએં; આનંદ સે, બ્રહ્માણ્ડ તક કો મહકાએં; વિશ્વ મેં, ભારત કા ગૌરવ બઢાએં " અંગ્રેજી કા નવ વર્ષ 2011, વ વર્ષ કે 365 દિન હી મંગલમય હોં, ભારત ભ્રષ્ટાચાર વ આતંકવાદ સે મુક્ત હો, હમ અપને આદર્શ વ સંસ્કૃતિ કો પુનર્પ્રતિષ્ઠિત કર સકેં! ઇન્હી શુભકામનાઓં કે સાથ, ભવદીય.. તિલક સંપાદક યુગદર્પણ રાષ્ટ્રીય સાપ્તાહિક હિંદી સમાચાર-પત્ર. 09911111611.

પત્રકારિતા વ્યવસાય નહીં એક મિશન હૈ-યુગદર્પણ

तेलुगु అంగ్రేజీ కా నవ వర్ష, భలే హీ మనాఏం

 "అంగ్రేజీ కా నవ వర్ష, భలే హీ మనాఏం; ఉమంగ ఉత్సాహ, చాహే జితనా దిఖాఏఁ; చైత్ర కే నవ రాత్రే, జబ జబ భీ ఆయేం; ఘర ఘర సజాఏఁ, ఉమంగ కే దీపక జలాఏం; ఆనంద సే, బ్రహ్మాణ్డ తక కో మహకాఏం; విశ్వ మేం, భారత కా గౌరవ బఢాఏం " అంగ్రేజీ కా నవ వర్ష 2011, వ వర్ష కే 365 దిన హీ మంగలమయ హోం, భారత భ్రష్టాచార వ ఆతంకవాద సే ముక్త హో, హమ అపనే ఆదర్శ వ సంస్కృతి కో పునర్ప్రతిష్ఠిత కర సకేం ! ఇన్హీ శుభకామనాఓం కే సాథ, భవదీయ.. తిలక సంపాదక యుగదర్పణ రాష్ట్రీయ సాప్తాహిక హిందీ సమాచార-పత్ర. 09911111611. పత్రకారితా వ్యవసాయ నహీం ఏక మిశన హై-యుగదర్పణ

मलयालम അംഗ്രേജീ കാ നവ വര്ഷ, ഭലേ ഹീ മനാഏം

 "അംഗ്രേജീ കാ നവ വര്ഷ, ഭലേ ഹീ മനാഏം; ഉമംഗ ഉത്സാഹ, ചാഹേ ജിതനാ ദിഖാഏം; ചൈത്ര കേ നവ രാത്രേ, ജബ ജബ ഭീ ആയേം; ഘര ഘര സജാഏം, ഉമംഗ കേ ദീപക ജലാഏം; ആനംദ സേ, ബ്രഹ്മാണ്ഡ തക കോ മഹകാഏം; വിശ്വ മേം, ഭാരത കാ ഗൌരവ ബഢാഏം " അംഗ്രേജീ കാ നവ വര്ഷ 2011, വ വര്ഷ കേ 365 ദിന ഹീ മംഗലമയ ഹോം, ഭാരത ഭ്രഷ്ടാചാര വ ആതംകവാദ സേ മുക്ത ഹോ, ഹമ അപനേ ആദര്ശ വ സംസ്കൃതി കോ പുനര്പ്രതിഷ്ഠിത കര സകേം!  ഇന്ഹീ ശുഭകാമനാഓം കേ സാഥ, ഭവദീയ.. തിലക  സംപാദക യുഗദര്പണ രാഷ്ട്രീയ സാപ്താഹിക ഹിംദീ സമാചാര-പത്ര. 09911111611. പത്രകാരിതാ വ്യവസായ നഹീം ഏക മിശന ഹൈ-യുഗദര്പണ
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक

Friday, December 24, 2010

पं. मदनमोहन मालवीय का सांस्कृतिक अवदान

पं. मदनमोहन मालवीय का सांस्कृतिक अवदान

डॉ. विनय मिश्र
श्रीमद्भगवदगीता में उल्लेख है - यदि
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानऽधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यऽहम्
अर्थात् जब भी धर्म का पराभव एवं अधर्म का विस्तार होता है तब तब कोई महाशक्ति धर्म की स्थापना एवं मानवीय मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होती है। पराधीन राष्ट्र को स्वतंत्र कराने एवं नव निर्माण के संकल्प का बीजवपन भारतीय सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की उर्वरा भूमि पर करने वाले युगपुरुष महामना पं. मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर 1861 ई. में प्रयाग में हुआ था। यह वह समय था जब अधर्म, अशांति तथा गुलामी की बेडयों में देश जकडा हुआ था। भौतिकवादी दुर्वासनाजनित कल्पनाओं की बयार हर ओर बह रही थी, अध्यात्म से अनुप्राणित सरगम की जगह वातावरण में असत्य एवं अत्याचार से संचालित राजनीति एवं रूढयों की प्रतिष्ठा थी एवं अनैतिकता का आचरण मनुष्य मात्र का सहज कार्य व्यापार था, कुछ ऐसे ही देश काल में भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए, नैतिक मूल्यों के उन्नयन के लिये, असत्य प्रेरित भौतिकवादिता के उन्मूलन के लिये, वेदों और शास्त्रों में निहित धार्मिक सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार के लिए, वसुधैव कुटुम्बकम् की महत् भावना से अनुप्राणित परहित के लिए त्याग एवं प्रेम को स्वीकृति देने वाले गंगाजल के समान स्वच्छ व निर्मल व्यक्तित्व के धनी पं. मदनमोहन मालवीय का आविर्भाव हुआ। मालवीय जी प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक थे, अतः भारतीय संस्कृति की सेवा करने का मूलमंत्र व प्रेरणा स्रोत एक श्लोक से ग्रहण करते हुए उन्होंने अपना सारा जीवन सनातन जीवन मूल्यों के उन्नयन में लगा दिया - 
न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं नाऽपुनभर्वम्।
कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामार्तिंनाशनम।।
अर्थात् न मुझे राज्यप्राप्ति की इच्छा है, न स्वर्ग की और न ही फिर से मनुष्य देह धारण करने की। यदि कोई कामना है तो बस यही कि मैं किस प्रकार दुःखों में तपते प्राणियों की पीडा का हरण कर सकूँ। 
एक सत्यनिष्ठ उपासक की तरह मालवीय जी ने देश के नवयुवकों का आह्वान करते हुए कहा - ’’सब प्राणियों के उपकार के लिए, शारीरिक शिक्षा और धर्म के महत्त्व को समझो। गाँव गाँव में पाठशालाएँ, खेलकूद के मैदान और अखाडे खोलो।‘‘ यह कथन आज के सन्दर्भ में भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि पहले था क्योंकि वर्तमान जीवन के दमघोटूँ एवं संत्रास भरे वातावरण से मुक्त होकर, सौन्दर्य एवं कल्पना के लोक में मनुष्य तभी विचरण कर सकता है। जब वह प्रकृति द्वारा प्राप्त संपूर्ण क्षमताओं एवं शक्तियों को पहचानकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में निरंतर क्रियाशील बना रहे।
हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है कि जीवन से संबंधित प्रश्नों का उत्तर ढूँढने के लिए अनगिनत महापुरुषों एवं मनीषियों ने अपना पूरा जीवन उत्सर्ग कर दिया। पं. मदनमोहन मालवीय भी ऐसे ही भारत रत्नों में से एक थे। वे अपने समय के उन प्रधान नेताओं में से थे जिन्होंने ’हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान‘ को सर्वोच्च स्थान पर स्थापित कराया। हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग जैसी साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा केन्द्रों के निर्माण द्वारा सार्वजनिक हिन्दी आंदोलन का नेतृत्व कर मालवीय जी ने हिन्दी की जो सेवा की है वह असाधारण है। उनके सद्प्रयत्नों से ही हिन्दी को यश, विस्तार और उच्च पद मिला। वे उच्च कोटि के विद्वान्, वक्ता और लेखक थे। यद्यपि लोकमान्य तिलक, राजेन्द्र बाबू और जवाहरलाल नेहरू के मौलिक या अनूदित साहित्य की तरह मालवीय जी ने नहीं लिखा अतः उनके कृतित्व का आकलन करते हुए यह मानना होगा कि हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में उनका योगदान क्रियात्मक अधिक परन्तु रचनात्मक साहित्यकार के रूप में कम है। उनके हिन्दी प्रेम को प्रमाणित करते हुए उनके भाषण का एक अंश प्रस्तुत हैं - ’’भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बडी कठिनाई यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक दुरूह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।‘‘ मालवीय जी विशुद्ध हिन्दी के पक्ष में थे और हिन्दी और हिन्दुस्तानी को एक नहीं मानते थे। सन् 1916 में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना ही उनकी शिक्षा और साहित्य सेवा का वह अमिट शिलालेख है जो इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में सदा चमकता रहेगा। इसके अतिरिक्त ’सनातन धर्मसभा‘ का नेता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में उन्होंने सनातन धर्म कॉलेजों की स्थापना की प्रेरणा प्रदान की।
सार्वजनिक जीवन में मालवीय जी का पदार्पण विशेषकर दो घटनाओं के कारण हुआ पहला यह कि अंग्रेजी और उर्दू के बढते प्रभाव के कारण हिन्दी भाषा को क्षति न पहुँचे, इसके लिए जनमत संग्रह करना तथा दूसरा भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल तत्त्वों को प्रोत्साहन देना।
हिन्दी की सबसे बडी सेवा मालवीय जी ने इस रूप में की कि उन्होंने उत्तरप्रदेश की अदालतों और दफ्तरों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रूप में स्वीकृत कराया। इससे पहले केवल उर्दू ही सरकारी दफ्तरों और अदालतों की भाषा थी। सन् 1893 में मालवीय जी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और वे इस सभा के प्रवर्तकों में से थे।
यद्यपि धार्मिक एवं सामाजिक विषयों पर उनके आर्यसमाज से गहरे मतभेद थे क्योंकि वे समस्त कर्मकाण्ड, रीतिरिवाज एवं मूर्तिपूजा आदि को हिन्दू धर्म का मौलिक अंग मानते थे फिर भी हिन्दी के प्रश्न पर दोनों का मतैक्य था। मालवीय जी एक सफल पत्रकार भी थे और हिन्दी पत्रकारिता से ही उन्होंने जीवन के कर्म क्षेत्र में पदार्पण किया। ’लीडर‘ और हिन्दुस्तान टाइम्स‘ की स्थापना का श्रेय भी मालवीय जी को है। कुछ दिनों को लिए उन्होंने ’मर्यादा‘ नाम से एक समाचार पत्र भी निकाला। वे पत्रों के द्वारा जनता में प्रचार करने में बहुत विश्वास रखते थे और स्वयं कई वर्षों तक अनेक पत्रों के सम्पादक भी रहे। कई साहित्यिक एवं धार्मिक संस्थाओं से भी उनका सम्फ रहा। सनातन धर्म सभा के सिद्धान्तों को प्रचारित करने के लिए मालवीय जी के प्रयत्नों से ही काशी से ’सनातन धर्म‘ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस तरह से हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा करने का उनका सद्प्रयास रंग लाया और शिक्षा सुधार के क्षेत्र में मालवीय जी के प्रयत्न अविस्मरणीय हो गये।
वे पुस्तकीय शिक्षा की बजाय प्रौद्योगिक शिक्षा के समर्थक थे। वे चाहते थे कि वैज्ञानिक ढंग की शिक्षा अपने देश में भी प्रारम्भ की जाये और प्रयोगशाला तथा वर्कशाप में विद्यार्थियों को अपने हाथों से प्रयोग करने का अभ्यास कराया जाये, उनमें शिक्षा से प्रेरणा की शक्ति उत्पन्न की जाये, उनके ज्ञान को यथातथ्य तथा जीवनोपयोगी बनाया जाये। उनकी धारणा थी कि भारत अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में तब तक सर्वथा असमर्थ रहेगा जब तक वह वर्तमान वैज्ञानिक अन्वेषण का अध्ययन नियमित और अनिवार्य नहीं बनाता। वे प्राचीन आयुर्वेद के साथ अर्वाचीन शल्य शिक्षा का मेल, आयुर्वेदिक औषधियों का वैज्ञानिक परीक्षण तथा उन पर अनुसंधान, विभिन्न विषयों पर प्राच्य और आधुनिक ज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन, प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शन साहित्य तथा इतिहास के गहन अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ आधुनिक मनोविज्ञान, नीतिविज्ञान, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन, वेद-वेदांत, संस्कृत साहित्य और वाङ्मय की शिक्षा के अतिरिक्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, धातु विज्ञान, खनन विज्ञान, विद्युत एवं यांत्रिक इंजीनियरिंग, कृषि विज्ञान आदि विषयों का अध्ययन-अध्यापन भी चाहते थे। इस प्रकार मुख्य रूप से सामाजिक स्थिरता एवं समरसता हेतु मालवीय जी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था तथा परिवर्तन और आधुनिकता हेतु आधुनिक वैज्ञानिक प्राकृतिक विज्ञान की शिक्षा व्यवस्था के पक्षधर थे क्योंकि उनके विचार में ’व्यक्ति‘ में मानवोचित विकास तथा प्रगति एवं कार्यशीलता के लिए उपर्युक्त शिक्षा आवश्यक है। उनका विचार था कि धर्म, दर्शन तथा कला की शिक्षा मनुष्य के सिर की भाँति है और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की शिक्षा उसके धड के समान
है, अतः उक्त दोनों प्रकार की शिक्षा एक दूसरे की पूरक है। मालवीय जी शिक्षा को चरित्र विकास का साधन मानते थे और चाहते थे कि शिक्षा द्वारा ’व्यक्ति‘ का सर्वांगीण विकास हो। वे सह शिक्षा के समर्थक थे। उनके अनुसार ’’स्त्रियों में पुरुषोचित और पुरुषों में स्त्रियोचित गुण समवयस्क सह शिक्षा द्वारा ही आ सकता है।‘‘ उस जमाने में इतने प्रगतिशील विचार रखना मालवीय जी की अत्याधुनिक व दूरदर्शितापूर्ण वैचारिकता का प्रमाण है।
मालवीय जी शिक्षा के साथ-साथ चरित्र निर्माण पर भी जोर देते थे। कहा भी गया है चरित्र निर्माणं ज्ञान विज्ञानात् श्रेष्ठतरम्। चरित्र के महत्त्व के प्रसंग में मालवीय जी ने एक जगह लिखा है - ’’धर्म, चरित्र निर्माण तथा सांसारिक सुख का सीधा मार्ग है। इससे मनुष्यों में उच्चकोटि की निःस्वार्थ सेवा की भावना आती है जिससे समाज तथा राष्ट्र का कल्याण होता है। उनके अनुसार शिक्षा प्रणाली का प्रधान ध्येय नवयुवकों को योग्य नागरिक बनाना तथा जनता की बुद्धि का विकास करना है।‘‘
मालवीय जी स्त्री शिक्षा के भी प्रबल हिमायती थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि ’’पुरुषों की शिक्षा से स्त्रियों की शिक्षा का अधिक महत्त्व है क्योंकि वे ही भारत की भावी सन्तति की माता हैं, वे हमारे भावी राजनीतिज्ञों, विद्वानों, तत्त्वज्ञानियों, व्यापार तथा कला-कौशल के नेताओं आदि की प्रथम शिक्षिका हैं, उनकी शिक्षा का प्रभाव भारत के भावी नागरिकों की शिक्षा पर विशेष रूप से पडेगा।‘‘ महाभारत में कहा गया है - ’’माता के समान कोई शिक्षक नहीं है।‘‘ इस प्रकार स्त्री शिक्षा के संदर्भ में मालवीय जी ने एक परिवर्तनवादी आधुनिक विचारदृष्टि तत्कालीन समाज के सामने रखी। मालवीय जी की शैक्षणिक विचारधारा प्रगतिशील और आधुनिक है जो एक दूरदर्शी शिक्षाशास्त्री के रूप में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका को राष्ट्रीय आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में स्थापित करती है।
पं. मदनमोहन मालवीय भारतीय संस्कृति के अद्वितीय उपासक एवं प्रतीक पुरुष थे। ब्रह्मचर्य पालन एवं गायत्री को स्वदेश भक्ति का अभिन्न अंग मानते हुए उन्होंने युवकों को भीष्म के समान व्रतनिष्ठ, कृष्ण के समान नीतिज्ञ एवं परशुराम के समान अन्याय एवं पराधीनता की बेडयों को काटने के लिए अपेक्षित आक्रोश का आह्वान किया। वे मानते थे कि बगैर धार्मिक उत्थान के राष्ट्र का उत्थान असंभव है। महामना द्वारा प्रतिपादित धर्म किसी संकीर्णवादी सांप्रदायिक दृष्टि का नहीं अपितु मानवमात्र को आत्मवत् देखने के विचार का पक्षधर था। अपने एक लेख में इसी दृष्टि के प्रतिपादन के लिए उन्होंने शास्त्र निर्दिष्ट एक श्लोक का उल्लेख किया है।
मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्
आत्मवत्सर्वभूतेष, यः पश्यति स पण्डितः 
निष्कर्षतः महामना मालवीय जी के सांस्कृतिक अवदान का मूल्यांकन करते हुए हम कह सकते हैं कि ’स्व‘ धर्म के प्रति अच्युत रहकर अपने धवल सबल चरित्र द्वारा अपने उदात्त मानस व प्रगतिशील प्रज्ञा दृष्टि का प्रमाण देते हुए मालवीय जी ने प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति में जो कुछ महान् व गौरवपूर्ण था उन जीवनदायी मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना की तथा जन मन में सांस्कृतिक गरिमा जगाने हेतु विभिन्न कला, धर्म एवं शिक्षण की सरणियों एवं विधाओं से नवजागरण का शंखनाद किया।
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था,आजभी इसमें वह गुण,योग्यता व क्षमता विद्यमान है!
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है
- आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Thursday, December 23, 2010

मनमोहनी मुखौटा व इच्छाशक्ति

मनमोहनी मुखौटा व इच्छाशक्ति

युग दर्पण सम्पादकीय
 विगत 3 वर्षों से 2 जी व अन्य घोटाले हुए पर आंख बंद रखने व बचाव करनेवाले प्र.मं. डॉ. मनमोहन सिंह ने शुचिता का मुखौटा लगा ही लिया व बुराड़ी में अपने भाषण से हमें आभास दिला दिया कि भ्रष्टाचार अभी भी एक मुद्दा है और मनमोहन सिंह सरकार उसे समाप्त करने की इच्छुक है। कांग्रेस महाधिवेशन में प्रधानमंत्री ने सिद्धांतों की राजनीति करते हुए केवल भ्रष्टाचार की शंका पर त्यागपत्र देने की परम्परा बताई, यह जानकार खुशी हुई। यह भी आवाज़ आइ, हम विपक्ष की तरह नहीं है कि किसी राज्य में घोटाले पर घोटाले हों और मुख्यमंत्री पद पर बने रहें। जेपीसी की मांग पर एकजुट विपक्ष में दरार डालने के लिए प्रधानमंत्री ने लोक लेखा समिति (पीएसी) के सामने प्रस्तुत होने का दांव खेला। उन्होंने कहा कि`मैं साफतौर पर कहना चाहता हूं कि मेरे पास कुछ भी छिपाने को नहीं है।  प्रधानमंत्री पद को किसी भी तरह के संदेह से परे होना चाहिए। इसलिए पुरानी परम्परा न होते हुए भी मैं लोलेसमिति (पीएसी) के सामने प्रस्तुत होने को तैयार हूं। इस मनमोहनी मुखौटे ने तो मनमोह लिया किन्तु अब इसके पीछे छिपे वास्तविक रूप को भी देखें।'
  माना कि यहां सीधे सीधे प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं। किसी ने भी यह नहीं कहा कि डॉ. मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार के कृत्य किए हैं। जेपीसी की मांग 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर है। प्रश्न सीधा है, क्या मनमोहन सिंह सरकार पूरी ईमानदारी से इस घोटाले की जांच करवाने को तैयार है या नहीं? संसद भारत की सर्वोच्च जनता की अदालत है। सांसद इसीलिए भेजे जाते हैं कि जनता की आवाज को संसद में उठा सकें। जब संसद के बहुमत सदस्य चाहते हैं कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच जेपीसी करे तो सरकार को इसमें क्या आपत्ति है? हम प्रधानमंत्री जी से क्षमा चाहेंगे। अपने भाषण में उन्होंने प्रधानमंत्री पद की निष्ठा की महत्ता बताई, किन्तु प्रश्न निष्ठा का नहीं, नियत का है, इच्छाशक्ति का है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई की बातें कहना और ऐसा करने की इच्छाशक्ति दिखाने में अन्तर होता है।और यहाँ यह अन्तर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। 
डॉ. मनमोहन सिंह के इस कथन से विपरीत कि मात्र संदेह होने पर उनके नेताओं ने पद त्याग दिया, वास्तविकता यह है कि ए. राजा से तब त्यागपत्र लिया गया जब इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह गया था। जब मीडिया और विपक्ष राजा के विरुद्ध कार्रवाई की मांग कर रहा था, तब कांग्रेसी देश को यह समझाने में लगे थे कि राजा को त्यागपत्र देने की आवश्यकता क्यों नहीं है? हम डॉ. सिंह को याद दिलाना चाहेंगे कि आपने स्वयं भी राजा का बचाव किया था। शशि थरूर के मामले में भी ऐसा ही हुआ था और जहां तक अशोक चव्हाण की बात है वह तो रंगे हाथ पकड़े गए थे। विवाद को ठंडे बस्ते में डालने के प्रयास में कांग्रेस ने चव्हाण को हटाया था, न कि देश का हित ध्यान में रखकर। 
  लोलेस (पीएसी) के पास सीमित अधिकार होते हैं। सामान्यत: कार्यपालिका से जुड़े सरकारी लोग संबंधित फाइलें ले जाकर समिति को यह बताते हैं कि उसमें क्या प्रक्रिया अपनाई गई किस-किस ने क्या लिखा, कैसे क्या निर्णय हुआ। यदि प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है और प्रधानमंत्री को भी संदेह से परे रखना चाहिए, तो हम याद करा दें आरोपी अपनी जांच का मंच स्वयं नहीं चुनता प्रधानमंत्री ने यह कहकर अपना मंच स्वयं चुना कि वह पीएसी के समक्ष प्रस्तुत होने को तैयार हैं। लोलेस केवल कैग की रिपोर्ट पर अनुच्छेदवार टिप्पणियां दे सकती है जबकि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन ही पूरी तरह से राजनीतिक मुद्दा है। क्या प्रधानमंत्री देश को यह बताना चाहेंगे कि एक दागी मंत्री को 3 वर्ष मंत्रालय में बने रहने की अनुमति कैसे मिल गई और आज तक उसके विरुद्ध कोई भी सीधी कार्रवाई नहीं हुई? सर्वो. न्याया. ने भी यह टिप्पणी की। । 
इच्छाशक्ति की बात करते है। यदि केंद्र सरकार अपनी चौतरफा आलोचना के बाद चेत गई है तो फिर देश को यह बताया जाए कि सर्वो. न्याया. की प्रतिकूल टिप्पणियों के बाद भी केंद्रीय सतर्पता आयुक्त के पद पर आसीन एक ऐसा व्यक्ति क्यों है जो न केवल पामोलीन आयात घोटाले में लिप्त होने का आरोपी है बल्कि अभियुक्त भी है? प्रश्न यह भी है कि मुसआ. (सीवीसी) के रूप में पीजे थॉमस की नियुक्ति सर्वो. न्याया. की ओर से निर्धारित प्रक्रिया के तहत क्यों नहीं की गई? एक दागदार छवि वाले व्यक्ति को मुसआ. बनाकर प्रधानमंत्री यह दावा कैसे कर सकते है कि वह भ्रष्टाचार के सख्त विरोधी है? यदि स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच कर रहे केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की निगरानी उच्चतम न्यायालय को करनी पड़ रही है तो क्या इसका एक अर्थ यह नहीं कि स्वयं शीर्ष अदालत भी यह मान रही है कि सीबीआई सरकार से प्रभावित हो सकती है? किसी राज्य में गलती का अनुसरण केंद्र कर रहा है तो गुज. व बिहार के विकास को आदर्श बनाया होता। । क्या सरकार ने स्वेच्छा से किसी भ्रष्ट तत्व के विरुद्ध कार्रवाई की, ऐसा कोई एक भी उदाहरण सरकार दे सकती है? 
बात इच्छाशक्ति की है। आज तक अफजल गुरु को फांसी क्यों नहीं दी गई? आतंकवाद को क्या यह सरकार रोकना चाहती है? लगता तो नहीं। वोट बैंक की चाह में देश की सुरक्षा से भी समझौता किया जा रहा है। इस सरकार का एक मात्र उद्देश्य किसी भी तरह से सत्ता में बने रहना है और जिससे उसके सत्ता कि नीव अस्थिर हो वह कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती तो गठबंधन के बहाने बन जाते हैं। 2जी स्पेक्ट्रम में भी यही प्राथमिकता है। सरकार अपने गठबंधन साथियों, विश्वस्त नौकरशाहों सहित सरकारी टुकड़ों पर पलते मीडिया के अपने उन पिट्ठुओं तथा मोटा चंदा देनेवाले उन उद्योगपतियों के पापों को ढकना चाहती है, जिनके साथ उसकी साठ गांठ हैं। । फिर भी प्रधानमंत्री कहते हैं कि मैं भ्रष्टाचार का सख्त विरोधी हूं। क्या सच मुच ?
डॉ. मनमोहन सिंह 
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है- तिलक