यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानऽधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यऽहम्
अर्थात् जब भी धर्म का पराभव एवं अधर्म का विस्तार होता है तब तब कोई महाशक्ति धर्म की स्थापना एवं मानवीय मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होती है। पराधीन राष्ट्र को स्वतंत्र कराने एवं नव निर्माण के संकल्प का बीजवपन भारतीय सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की उर्वरा भूमि पर करने वाले युगपुरुष महामना पं. मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर 1861 ई. में प्रयाग में हुआ था। यह वह समय था जब अधर्म, अशांति तथा गुलामी की बेडयों में देश जकडा हुआ था। भौतिकवादी दुर्वासनाजनित कल्पनाओं की बयार हर ओर बह रही थी, अध्यात्म से अनुप्राणित सरगम की जगह वातावरण में असत्य एवं अत्याचार से संचालित राजनीति एवं रूढयों की प्रतिष्ठा थी एवं अनैतिकता का आचरण मनुष्य मात्र का सहज कार्य व्यापार था, कुछ ऐसे ही देश काल में भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए, नैतिक मूल्यों के उन्नयन के लिये, असत्य प्रेरित भौतिकवादिता के उन्मूलन के लिये, वेदों और शास्त्रों में निहित धार्मिक सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार के लिए, वसुधैव कुटुम्बकम् की महत् भावना से अनुप्राणित परहित के लिए त्याग एवं प्रेम को स्वीकृति देने वाले गंगाजल के समान स्वच्छ व निर्मल व्यक्तित्व के धनी पं. मदनमोहन मालवीय का आविर्भाव हुआ। मालवीय जी प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक थे, अतः भारतीय संस्कृति की सेवा करने का मूलमंत्र व प्रेरणा स्रोत एक श्लोक से ग्रहण करते हुए उन्होंने अपना सारा जीवन सनातन जीवन मूल्यों के उन्नयन में लगा दिया -
एक सत्यनिष्ठ उपासक की तरह मालवीय जी ने देश के नवयुवकों का आह्वान करते हुए कहा - ’’सब प्राणियों के उपकार के लिए, शारीरिक शिक्षा और धर्म के महत्त्व को समझो। गाँव गाँव में पाठशालाएँ, खेलकूद के मैदान और अखाडे खोलो।‘‘ यह कथन आज के सन्दर्भ में भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि पहले था क्योंकि वर्तमान जीवन के दमघोटूँ एवं संत्रास भरे वातावरण से मुक्त होकर, सौन्दर्य एवं कल्पना के लोक में मनुष्य तभी विचरण कर सकता है। जब वह प्रकृति द्वारा प्राप्त संपूर्ण क्षमताओं एवं शक्तियों को पहचानकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में निरंतर क्रियाशील बना रहे।
हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है कि जीवन से संबंधित प्रश्नों का उत्तर ढूँढने के लिए अनगिनत महापुरुषों एवं मनीषियों ने अपना पूरा जीवन उत्सर्ग कर दिया। पं. मदनमोहन मालवीय भी ऐसे ही भारत रत्नों में से एक थे। वे अपने समय के उन प्रधान नेताओं में से थे जिन्होंने ’हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान‘ को सर्वोच्च स्थान पर स्थापित कराया। हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग जैसी साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा केन्द्रों के निर्माण द्वारा सार्वजनिक हिन्दी आंदोलन का नेतृत्व कर मालवीय जी ने हिन्दी की जो सेवा की है वह असाधारण है। उनके सद्प्रयत्नों से ही हिन्दी को यश, विस्तार और उच्च पद मिला। वे उच्च कोटि के विद्वान्, वक्ता और लेखक थे। यद्यपि लोकमान्य तिलक, राजेन्द्र बाबू और जवाहरलाल नेहरू के मौलिक या अनूदित साहित्य की तरह मालवीय जी ने नहीं लिखा अतः उनके कृतित्व का आकलन करते हुए यह मानना होगा कि हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में उनका योगदान क्रियात्मक अधिक परन्तु रचनात्मक साहित्यकार के रूप में कम है। उनके हिन्दी प्रेम को प्रमाणित करते हुए उनके भाषण का एक अंश प्रस्तुत हैं - ’’भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बडी कठिनाई यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक दुरूह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।‘‘ मालवीय जी विशुद्ध हिन्दी के पक्ष में थे और हिन्दी और हिन्दुस्तानी को एक नहीं मानते थे। सन् 1916 में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना ही उनकी शिक्षा और साहित्य सेवा का वह अमिट शिलालेख है जो इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में सदा चमकता रहेगा। इसके अतिरिक्त ’सनातन धर्मसभा‘ का नेता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में उन्होंने सनातन धर्म कॉलेजों की स्थापना की प्रेरणा प्रदान की।
सार्वजनिक जीवन में मालवीय जी का पदार्पण विशेषकर दो घटनाओं के कारण हुआ पहला यह कि अंग्रेजी और उर्दू के बढते प्रभाव के कारण हिन्दी भाषा को क्षति न पहुँचे, इसके लिए जनमत संग्रह करना तथा दूसरा भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल तत्त्वों को प्रोत्साहन देना।
हिन्दी की सबसे बडी सेवा मालवीय जी ने इस रूप में की कि उन्होंने उत्तरप्रदेश की अदालतों और दफ्तरों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रूप में स्वीकृत कराया। इससे पहले केवल उर्दू ही सरकारी दफ्तरों और अदालतों की भाषा थी। सन् 1893 में मालवीय जी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और वे इस सभा के प्रवर्तकों में से थे।
यद्यपि धार्मिक एवं सामाजिक विषयों पर उनके आर्यसमाज से गहरे मतभेद थे क्योंकि वे समस्त कर्मकाण्ड, रीतिरिवाज एवं मूर्तिपूजा आदि को हिन्दू धर्म का मौलिक अंग मानते थे फिर भी हिन्दी के प्रश्न पर दोनों का मतैक्य था। मालवीय जी एक सफल पत्रकार भी थे और हिन्दी पत्रकारिता से ही उन्होंने जीवन के कर्म क्षेत्र में पदार्पण किया। ’लीडर‘ और हिन्दुस्तान टाइम्स‘ की स्थापना का श्रेय भी मालवीय जी को है। कुछ दिनों को लिए उन्होंने ’मर्यादा‘ नाम से एक समाचार पत्र भी निकाला। वे पत्रों के द्वारा जनता में प्रचार करने में बहुत विश्वास रखते थे और स्वयं कई वर्षों तक अनेक पत्रों के सम्पादक भी रहे। कई साहित्यिक एवं धार्मिक संस्थाओं से भी उनका सम्फ रहा। सनातन धर्म सभा के सिद्धान्तों को प्रचारित करने के लिए मालवीय जी के प्रयत्नों से ही काशी से ’सनातन धर्म‘ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस तरह से हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा करने का उनका सद्प्रयास रंग लाया और शिक्षा सुधार के क्षेत्र में मालवीय जी के प्रयत्न अविस्मरणीय हो गये।
वे पुस्तकीय शिक्षा की बजाय प्रौद्योगिक शिक्षा के समर्थक थे। वे चाहते थे कि वैज्ञानिक ढंग की शिक्षा अपने देश में भी प्रारम्भ की जाये और प्रयोगशाला तथा वर्कशाप में विद्यार्थियों को अपने हाथों से प्रयोग करने का अभ्यास कराया जाये, उनमें शिक्षा से प्रेरणा की शक्ति उत्पन्न की जाये, उनके ज्ञान को यथातथ्य तथा जीवनोपयोगी बनाया जाये। उनकी धारणा थी कि भारत अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में तब तक सर्वथा असमर्थ रहेगा जब तक वह वर्तमान वैज्ञानिक अन्वेषण का अध्ययन नियमित और अनिवार्य नहीं बनाता। वे प्राचीन आयुर्वेद के साथ अर्वाचीन शल्य शिक्षा का मेल, आयुर्वेदिक औषधियों का वैज्ञानिक परीक्षण तथा उन पर अनुसंधान, विभिन्न विषयों पर प्राच्य और आधुनिक ज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन, प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शन साहित्य तथा इतिहास के गहन अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ आधुनिक मनोविज्ञान, नीतिविज्ञान, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन, वेद-वेदांत, संस्कृत साहित्य और वाङ्मय की शिक्षा के अतिरिक्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, धातु विज्ञान, खनन विज्ञान, विद्युत एवं यांत्रिक इंजीनियरिंग, कृषि विज्ञान आदि विषयों का अध्ययन-अध्यापन भी चाहते थे। इस प्रकार मुख्य रूप से सामाजिक स्थिरता एवं समरसता हेतु मालवीय जी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था तथा परिवर्तन और आधुनिकता हेतु आधुनिक वैज्ञानिक प्राकृतिक विज्ञान की शिक्षा व्यवस्था के पक्षधर थे क्योंकि उनके विचार में ’व्यक्ति‘ में मानवोचित विकास तथा प्रगति एवं कार्यशीलता के लिए उपर्युक्त शिक्षा आवश्यक है। उनका विचार था कि धर्म, दर्शन तथा कला की शिक्षा मनुष्य के सिर की भाँति है और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की शिक्षा उसके धड के समान
है, अतः उक्त दोनों प्रकार की शिक्षा एक दूसरे की पूरक है। मालवीय जी शिक्षा को चरित्र विकास का साधन मानते थे और चाहते थे कि शिक्षा द्वारा ’व्यक्ति‘ का सर्वांगीण विकास हो। वे सह शिक्षा के समर्थक थे। उनके अनुसार ’’स्त्रियों में पुरुषोचित और पुरुषों में स्त्रियोचित गुण समवयस्क सह शिक्षा द्वारा ही आ सकता है।‘‘ उस जमाने में इतने प्रगतिशील विचार रखना मालवीय जी की अत्याधुनिक व दूरदर्शितापूर्ण वैचारिकता का प्रमाण है।
मालवीय जी शिक्षा के साथ-साथ चरित्र निर्माण पर भी जोर देते थे। कहा भी गया है चरित्र निर्माणं ज्ञान विज्ञानात् श्रेष्ठतरम्। चरित्र के महत्त्व के प्रसंग में मालवीय जी ने एक जगह लिखा है - ’’धर्म, चरित्र निर्माण तथा सांसारिक सुख का सीधा मार्ग है। इससे मनुष्यों में उच्चकोटि की निःस्वार्थ सेवा की भावना आती है जिससे समाज तथा राष्ट्र का कल्याण होता है। उनके अनुसार शिक्षा प्रणाली का प्रधान ध्येय नवयुवकों को योग्य नागरिक बनाना तथा जनता की बुद्धि का विकास करना है।‘‘
मालवीय जी स्त्री शिक्षा के भी प्रबल हिमायती थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि ’’पुरुषों की शिक्षा से स्त्रियों की शिक्षा का अधिक महत्त्व है क्योंकि वे ही भारत की भावी सन्तति की माता हैं, वे हमारे भावी राजनीतिज्ञों, विद्वानों, तत्त्वज्ञानियों, व्यापार तथा कला-कौशल के नेताओं आदि की प्रथम शिक्षिका हैं, उनकी शिक्षा का प्रभाव भारत के भावी नागरिकों की शिक्षा पर विशेष रूप से पडेगा।‘‘ महाभारत में कहा गया है - ’’माता के समान कोई शिक्षक नहीं है।‘‘ इस प्रकार स्त्री शिक्षा के संदर्भ में मालवीय जी ने एक परिवर्तनवादी आधुनिक विचारदृष्टि तत्कालीन समाज के सामने रखी। मालवीय जी की शैक्षणिक विचारधारा प्रगतिशील और आधुनिक है जो एक दूरदर्शी शिक्षाशास्त्री के रूप में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका को राष्ट्रीय आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में स्थापित करती है।
पं. मदनमोहन मालवीय भारतीय संस्कृति के अद्वितीय उपासक एवं प्रतीक पुरुष थे। ब्रह्मचर्य पालन एवं गायत्री को स्वदेश भक्ति का अभिन्न अंग मानते हुए उन्होंने युवकों को भीष्म के समान व्रतनिष्ठ, कृष्ण के समान नीतिज्ञ एवं परशुराम के समान अन्याय एवं पराधीनता की बेडयों को काटने के लिए अपेक्षित आक्रोश का आह्वान किया। वे मानते थे कि बगैर धार्मिक उत्थान के राष्ट्र का उत्थान असंभव है। महामना द्वारा प्रतिपादित धर्म किसी संकीर्णवादी सांप्रदायिक दृष्टि का नहीं अपितु मानवमात्र को आत्मवत् देखने के विचार का पक्षधर था। अपने एक लेख में इसी दृष्टि के प्रतिपादन के लिए उन्होंने शास्त्र निर्दिष्ट एक श्लोक का उल्लेख किया है।
मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्
आत्मवत्सर्वभूतेष, यः पश्यति स पण्डितः
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