- नेता जी सुभाष के जन्म दिवस पर उन्हें शत शंत नमन ...!! व सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं !1931 में कांग अध्यक्ष बने नेताजी, गाँधी का नेहरु प्रेम आड़े न आता;तो देश का बंटवारा न होता, कश्मीर समस्या न होती, भ्रष्टाचार न होता,देश समस्याओं का भंडार नहीं, विपुल सम्पदा का भंडार होता(स्विस में नहीं)!-- तिलक संपादक युग दर्पण
- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बांग्ला: সুভাষ চন্দ্র বসু शुभाष चॉन्द्रो बोशु) (23 जनवरी 1897 - 18 अगस्त, 1945 विवादित) जो नेताजी नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय, अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा, भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।1944 में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था कि कहा जाता हैं कि यदि उस समय नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत एक संघ राष्ट्र बना रहता और भारत का विभाजन न होता। स्वयं गाँधीजी ने इस बात को स्वीकार किया था।[अनुक्रम 1 जन्म और कौटुंबिक जीवन, 2 स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य, 3 कारावास, 4 यूरोप प्रवास, 5 हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षप, 6 कांग्रेस के अध्यक्षपद से इस्तीफा, 7 फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना, 8 नजरकैद से पलायन, 9 नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात, 10 पूर्व एशिया में अभियान, 11 लापता होना और मृत्यु की खबर 11.1 टिप्पणी, 12 सन्दर्भ, 13 बाहरी कड़ियाँ,]जन्म और कौटुंबिक जीवननेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। कटक शहर के प्रसिद्द वकील जानकीनाथ बोस व कोलकाता के एक कुलीन दत्त परिवार से आइ प्रभावती की 6 बेटियाँ और 8 बेटे कुल मिलाकर 14 संतानें थी। जानकीनाथ बोस पहले सरकारी वकील बाद में निजी तथा कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया व बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे।।स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्यकोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी, देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और मणिभवन में 20 जुलाई, 1921 को महात्मा गाँधी से मिले। कोलकाता जाकर दासबाबू से मिले उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। दासबाबू उन दिनों अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध गाँधीजी के असहयोग आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए,कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का ढंग ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को उत्तर देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम 8 सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। किन्तु सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराजकी मांग से पीछे हटना स्वीकार नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, 1 वर्ष का समय दिया जाए। यदि 1 वर्ष में अंग्रेज़ सरकार ने यह मॉंग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज़ सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जब लाहौर में हुआ, तब निश्चित किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा।26 जनवरी, 1931 के दिन कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझोता किया और सब कैदीयों को रिहा किया गया। किन्तु अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा करने से माना कर दिया। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझोता तोड दे। किन्तु गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोडने को राजी नहीं थे। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी ने सरकार से बात की। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के नीतिओं से बहुत रुष्ट हो गए।कारावासअपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 1921में 6 माह का कारावास हुआ।1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधिक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने भूल से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फॉंसी की सजा दी गयी। गोपिनाथ को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव मॉंगकर उसका अंतिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष किया कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न केवल ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित कालखंड के लिए म्यानमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।5 नवंबर, 1925 के दिन, देशबंधू चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसें। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की सूचना मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी।मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। उन्हें तपेदिक हो गया। परंतू अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से मना कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे चिकित्सा के लिए यूरोप चले जाए। किन्तु सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि चिकित्सा के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। अन्त में परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यू हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू चिकित्सा के लिए डलहौजी चले गए।यूरोप प्रवासजब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया।बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिस में उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत गहरी निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। किन्तु विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया।विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। किन्तु उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उसपर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जितकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वह संपत्ती, गाँधीजी के हरिजन सेवा कार्य को भेट दे दी।हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षपदइस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो।अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे। सुभाषबाबू ने बेंगलोर में विख्यात वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी ली।1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया। सुभाषबाबू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चिनी जनता की सहायता के लिए, डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाषबाबू ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया, तब कई लोग उन्हे जापान के हस्तक और फासिस्ट कहने लगे। किन्तु इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाषबाबू न तो जापान के हस्तक थे, न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।कांग्रेस के अध्यक्षपद से त्यागपत्र1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, किन्तु गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी बीच युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्षपद की कार्यकाल में इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे।1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ती अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसी कोई दुसरी व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। किन्तु गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजीने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सितारमैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ ठाकूर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की विनंती की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। किन्तु गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझोता न हो पाने पर, बहुत वर्षों के बाद, कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव लडा गया।सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। किन्तु वास्तव में, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिल गए और पट्टाभी सितारमैय्या को 1377 मत मिलें। गाँधीजी के विरोध के बाद भी सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।किन्तु चुनाव के निकाल के साथ बात समाप्त नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सितारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर, अपने साथीयों से कह दिया कि यदि वें सुभाषबाबू के नीतिओं से सहमत नहीं हैं, तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बनें रहें।फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना3 मई, 1939 के दिन, सुभाषबाबू नें कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाला गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही, फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए, जनजागृती शुरू की। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हे रिहा करने पर बाध्य करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपोषण शुरू कर दिया। तब सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। किन्तु अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी, कि सुभाषबाबू युद्ध काल में मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हे उनके ही घर में नजरकैद कर के रखा।नजरकैद से पलायननजरकैद से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी, 1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाडी से कोलकाता से दूर, गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेल्वे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकडकर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर शाह ने उनकी भेंट, कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कर दी। भगतराम तलवार के साथ में, सुभाषबाबू पेशावर से अफ़्ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे। पहाडियों में पैदल चलते हुए उन्होने यह यात्रा कार्य पूरा किया।काबुल में सुभाषबाबू 2 माह तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में असफल रहने पर, उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने का प्रयास किया। इटालियन दूतावास में उनका प्रयास सफल रहा। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। अन्त में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर, सुभाषबाबू काबुल से रेल्वे से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होकर जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकातबर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी बीच सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।कई वर्ष पूर्व हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस पुस्तक में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर क्षमा माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हे कुछ और नहीं मिलने वाला हैं। इसलिए 8 मार्च, 1943 के दिन, जर्मनी के कील बंदर में, वे अपने साथी अबिद हसन सफरानी के साथ, एक जर्मन पनदुब्बी में बैठकर, पूर्व एशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनदुब्बी तक पहुँच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में, किसी भी दो देशों की नौसेनाओ की पनदुब्बीयों के बीच, नागरिको की यह एकमात्र बदली हुई थी। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।पूर्व एशिया में अभियानपूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम, वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया।जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात, नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।21 अक्तूबर, 1943 के दिन, नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे स्वयं इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल 9 देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए।आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे हुए भारतीय युद्धबंदियों को भर्ती किया गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतो के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थायिक भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और उसे आर्थिक सहायता करने का आवाहन किया। उन्होने अपने आवाहन में संदेश दिया तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनो फौजो ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। यह द्वीप अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद के अनुशासन में रहें। नेताजी ने इन द्वीपों का शहीद और स्वराज द्वीप ऐसा नामकरण किया। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। किन्तु बाद में अंग्रेजों का पलडा भारी पडा और दोनो फौजो को पिछे हटना पडा।जब आज़ाद हिन्द फौज पिछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लडकियों के साथ सैकडो मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्येश्य के बारे में बताया।अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा । ।लापता होना और मृत्यु की खबरद्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना आवश्यक था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था।दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्च्हय किया, किन्तु वे सफल नहीं रहे। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में 2 बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह परिणाम निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। किन्तु जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की सूचना थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई प्रमाण नहीं हैं। किन्तु भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।देश के अलग-अलग भागों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं किन्तु इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी।टिप्पणी
- कोई भी व्यक्ति कष्ट और बलिदान के माध्यम असफल नहीं हो सकता, यदि वह पृथ्वी पर कोई चीज गंवाता भी है तो अमरत्व का वारिस बन कर काफी कुछ प्राप्त कर लेगा।...सुभाष चंद्र बोस
- एक मामले में अंग्रेज बहुत भयभीत थे। सुभाषचंद्र बोस, जो उनके सबसे अधिक दृढ़ संकल्प और संसाधन वाले भारतीय शत्रु थे, ने कूच कर दिया था।...क्रिस्टॉफर बेली और टिम हार्पर
- सन्दर्भ
- अब छत्तीसगढ़ में सुभाष चंद्र बोस
- आज़ाद भारत में आज़ाद हिंद
- ''नेताजी की हत्या का आदेश दिया था
- बाहरी कड़ियाँ
- नेताजी से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक करे सरकार
- नेताजी सुभाष: सत्य की अनवरत तलाश
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कर्ण
- सुभाषचंद्र बोस : संक्षिप्त परिचय (वेबदुनिया)
- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस - आजादी के महानायक
- राष्ट्र गौरव सुभाष: नेताजी से जुड़े वे तथ्य और प्रसंग, जिन्हें हर भारतीय को- खासकर, युवा पीढ़ी को- जानना चाहिए, मगर दुर्भाग्यवश जान नहीं पाते हैं
Sunday, January 23, 2011
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन
Saturday, January 22, 2011
26 जनवरी गणतंत्र दिवस की एकता यात्रा व विरोध के स्वरों का निहितार्थ
Monday, January 17, 2011
सहकारिता - कल. आज और कल---------------------------. . . . . . . . . . . . विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से.नि.)
1. कल्पना करें आज से पच्चीस हजार वर्ष पहले की जब आदमी मुख्यतया शिकार पर ही जीवन यापन करता था। मनुष्य की अपेक्षा सृष्टि के अनेक अन्य जानवर उससे कहीं अधिक सशक्त रहे हैं। बाघ या सिंह वन में राज्य करते रहे हैं; तब यह उनसे दुर्बल जीव मनुष्य कैसे अपनी रक्षा कर पाया, और उन सशक्त जानवरों का भी राजा बन गया? जंगल में जहां उसे हिरन या मोर आदि का शिकार करने जाना होता था, वहां तो इऩ्हीं आक्रामक और शक्तिशाली जानवरों का राज्य होता था। तब वह वहां कैसे आखेट के लिये अकेले जा सकता ! उसे तो दल बनाकर ही जाना पड़ता होगा, ताकि चारों दिशाओं पर (वैसे तो छह दिशाएं कहना चाहिये - एक ऊपर क्योंकि झाड़ों पर से भी आक्रमण हो सकते थे - और नीचे सरी सृपों से रक्षा के लिये) चौकस रखी जा सके। यदि शारीरिक रूप से दुर्बल मानव जाति इन भयंकर जंतुओं के रहते अपनी रक्षा तथा योग क्षेम मात्र लाठी तथा पत्थरों से कर सकी थी, तब इसमें संदेह नहीं होना चाहिये कि यह 'सहयोग' या सहकार से ही हुआ। सहयोग के तत्काल प्रतिदान की अपेक्षा नहीं होती सिवाय इसके कि 'शुभ कामनाएं' मिलें। किन्तु उस काल के आखेट में सहयोग में भी कुछ स्पष्ट 'लेन देन' की भावना या मान्यता रहती होंगी, जैसे कि शिकार (हिरन) का मांस सभी में बँटता होगा, वास्तव में वह सहयोग अलिखित सहकार ही था, लिखित अनुबन्ध तो उन दिनों नहीं होते थे।
आखेट और रक्षा का यह सहयोग तथा सहकार हमारे जीन्स या आनुवंशिकी में पर्याप्त मात्रा में आ गया है; किन्तु इससे अधिक मात्रा में तो हमें स्वार्थमय योगक्षेम ही मिला है, और सौभाग्य कि इससे भी अधिक हमें संतान प्रेम मिला है।
यह तो हमें मालूम है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जैसे चींटी, मधुमक्खी आदि, क्योंकि इनके सदस्यों में समाज के हित के लिये कार्य, स्व की देखभाल के अतिरिक्त, बँटे रहते हैं। और इसीलिये, यह गुण न होने के कारण, बाघ, सिंह, बिल्ली आदि सामाजिक प्राणी नहीं हैं। भेडिये, जंगली कुत्ते आदि को हम अर्ध सामाजिक कह सकते हैं, क्योंकि इनमें सहयोग शिकार करने तक ही सीमित होता है। किन्तु यह दृष्टव्य है कि समाज का लाभ सभी प्राणी उठाते हैं, और समाज को लाभ भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, सभी प्राणी पहुँचाते हैं। इसलिये वर्गवादी दृष्टि की अपेक्षा समग्र या समग्रतर दृष्टि अधिक वांछनीय है।
2. सहयोग तथा सहकार में बारीक अंतर है, क्योंकि बिना सहयोग की भावना के सहकार नहीं हो सकता। एक तो सहयोग अनौपचारिक है, और सहकार औपचारिक जिसमें नियम या अनुबन्ध भी होते हैं। किसी कार्य को लिखित साझारूप से आपस के लाभ के लिये करना सहकार है। सहकार में साझा व्यक्तियों के उद्देश्य तथा कार्य विधि में सहमति होना आवश्यक है। सहयोग में करने वाले को किसी अन्य लाभ की अपेक्षा नहीं होती, जब कि सहकार में लाभ या हानि बाँटी जाती है। सहयोग करने वाले पक्षों के बीच घनिष्ठता तथा मैत्री होती है, यद्यपि यह अनिवार्य नहीं, जब कि सहकार में मैत्री की भावना आवश्यक है। जब भिन्न लोगों के ध्येय या उद्देश्य में समानता हो तब उनमें भी सहयोग हो सकता है। जब कुछ दल या लोग मिलकर किसी मित्र को ही धोखा देकर अपना लाभ कमाएं तब वह सहकार उनके बीच मिलीभगत कहलाता है। जब कोई अधिक समर्थ अपने किसी मित्र या संबन्धी मातहत की अनैतिक सहायता करता है तब उस सहयोग को सरपरस्ती कहते हैं। सहकार में सहयोग के गुणदोष आ सकते हैं। यद्यपि सभी प्रकार की सहायता या दान सहयोग कहलाया जा सकता है, तथापि किसी के द्वारा भी कार्य किये जा रहे ध्येय के साथ यदि आपकी सहमति या सहानुभूति है, और देश काल के थोड़े बड़े स्तर पर जब उसकी आप जो सहायता करेंगे, उसे सहयोग कहा जाएगा। इस तरह हम देखते हैं कि सहायता की अपेक्षा सहयोग देश काल के थोड़े बड़े स्तर पर होता है।
सहकारी संस्था : आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं तथा उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्वेच्छा से संगठित, जनतांत्रिक पद्धति से चालित एवं सभी सदस्यों के स्वामित्व में कार्यरत स्वायत्त संस्था सहकारी संस्था कहलाती है। संस्था का स्वायत्त रहना प्रत्येक दशा में अनिवार्य है अन्यथा संगठन अपने मार्ग से भटक सकता है। यदि कार्य करने के लिये धन की आवश्यकता हो तब संगठन के सदस्य बराबरी से धन का निवेश करते हैं, और हानि लाभ भी बराबरी से बाँटते हैं। ऐसी संस्थाएं अपनी सफ़लता के लिये कुछ जीवन मूल्यों के अनुपालन की माँग करती हैं, यथा, सच्चाई, जनतंत्र, न्याय, एकता, खुलापन, सामाजिक उत्तरदायित्व तथा समाज - सेवाभाव आदि। इसकी कार्यपद्धति सहकारिता तथा विचारप्रणाली सहकारवाद कहलाती है। सहकारी का मुख्य उद्देश्य हिस्सेदारों को अधिकतम लाभ देना नहीं, वरन अपने ग्राहकों या लक्ष्य मनुष्यों को मूल्यवान सेवा देना है। यह वे तभी कर सकते हैं कि जब वे स्वयं मानवीय जीवनमूल्यों पर आचरण करें। अत: सदस्यों का सहकारी विचारधारा में शिक्षित होना भी आवश्यक है। सहकारी संगठन अनेक प्रकार के होते हैं, यथा, गृह निर्माण, विक्रय, कर्मचारी, उपभोक्ता, किसान, मजदूर, महिला जागरण, शिक्षण, जिज्ञासा, प्रकृति संरक्षण इत्यादि।
3. सहकारिता तथा प्रेम में गहरा सम्बन्ध है। वैसे तो 'लगाव' से ही लोग आपस में जुड़ सकते हैं, और कार्य भी कर सकते हैं, किन्तु लगाव में वह सेवा भाव नहीं हो पाता जैसा कि प्रेम में होता है। प्रेम सहज ही सहायता करने की प्रेरणा और शक्ति देता है। प्रेम सहकारिता की शक्ति को और सुदृढ़ करता है। बिना प्रेम के सहायता या सहकारिता निरी व्यावसायिक कहलाती है। सहकारिता सफ़लता के लिये 'नैतिकता' की मांग करती है, अन्यथा इसमें अक्सर एक पक्ष की स्वार्थ सिद्धि तो हो सकती है, किन्तु दोनों पक्षों के लाभ की सही सिद्धि शायद ही हो; किन्तु थोड़ा सा भी प्रेम होने पर दोनों पक्षों के उचित स्वार्थ की सिद्धि हो सकती है। ग्वाला प्रेम होने पर नकली दूध तो नहीं बेचेगा। दान की अपेक्षा रखने वाले विद्वान साधुओं के भी संगठन होते हैं, जिनकी कार्य पद्धति 'सहकारी' नहीं होती, उनके प्रवचन व्यवसाय नहीं वरन सहायता हैं क्योंकि वह श्रोताओं के जीवन के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हैं और सुखी जीवन के लिये सहायता करते हैं, उनमें आपके लिये प्रेम है, उनका कार्य व्यवसाय नहीं है, यद्यपि इसके अपवाद भी होते हैं। अपने लाभ के लिये स्वकेन्द्रित व्यक्ति हानिकारक चिप्स तथा कोला भी बेचेगा या बिकवाएगा चाहे वह कोला की कम्पनी या आपका प्रिय क्रिकैट का हीरो या फ़िल्मों का हीरो क्यों न हों, उनसे हमें सावधान ही रहना चाहिये क्योंकि इस तरह यह सच्ची सहायता नहीं, वरन लूटने वाला व्यापार हैं, वे आपकी सहृदयता का शोषण कर रहे हैं!!
सहकारिता का कार्यक्षेत्र बहुत विशाल तथा गहरा है। पति पत्नी का जोड़ा परिवार की इकाई है, जो संतान का पालन पोषण कर सृष्टि को चलाता है। भारतीय परम्परा में वैवाहिक सम्बन्ध संस्कारों पर आधारित होते हैं; किन्तु आजकल पति पत्नी के संबन्ध भी 'सहकारिता' के अन्दर आने लगे हैं क्योंकि वे एक तरह के कानूनी अनुबन्ध हो रहे हैं। यदि इनमें प्रेम या सहयोग या सहकारिता (अनुबन्ध विवाह में) न हो तो पति पत्नी तो दुखी होंगे ही, सृष्टि ही दुखी हो जाए। पति तथा पत्नी के बीच सहयोग या सहकारिता सहज है भी और नहीं भी। सहज इस अर्थ में है कि पुरुष और नारी में सहज आकर्षण तो होता है और वे एक दूसरे की सहायता सहर्ष कर सकते हैं। किन्तु अक्सर यह आकर्षण अपने भोग के लिये ही सहयोग उत्पन्न करता है, अत: उसमें स्थायित्व कठिनाई से ही आ सकता है। अतएव उसे अपेक्षाकृत स्थायी बनाने के लिये संस्कृति और समाज उनके बीच सच्चा प्रेम उत्पन्न कराते हैं, वरना यह जीवन चक्र सुचारु रूप से नहीं चल सकता। माता पिता तथा संतान के बीच प्रेम या सहयोग या सहकारिता (दुर्भाग्य ही कहना पड़ेगा कि, बच्चों के मानवाधिकार के नाम पर इस पावन संबन्ध को भी 'अनुबन्ध' बनाया जा रहा है) इतनी अधिक महत्वपूर्ण है कि प्रकृति ने इसे तो सहज या जन्मजात बना दिया है, तब भी संस्कृति का कार्य इसमें भी महत्वपूर्ण है।
सहकारिता के बिना न तो यह शारीरिक रूप से दुर्बल मनुष्य अपनी रक्षा कर पाता और न अपना विकास, क्योंकि आदिम काल में तो पहले उसके पास लाठी और पत्थर के अतिरिक्त हथियार भी नहीं थे। यह तो स्पष्ट है कि सहकारिता पर आएधारित ज्ञान और प्रौद्योगिकी के बिना न तो विद्युत, यांत्रिक वाहन, विमान, उपग्रह, मोबाइल फ़ोन, टीवी, चिकित्सा, नगर आदि होते और न यह सभ्यता होती। किन्तु मानव समाज की संस्कृति कैसे भ्रष्ट हो गई? जैसे ही सहकारिता निरी व्यावसायिकता में बदल गई, वैसे ही संस्कृति भोगवादी संस्कृति बन ग़ई। आज मनुष्य न केवल हाथियों और सिंहों पर राज्य कर रहा है, वरन अपनी सफ़लता के घमण्ड पर अपने को प्रकृति का स्वामी समझ कर उसका विनाश कर रहा है। उसने न केवल पाँचों तत्वों - आकाश, वायु, अग्नि, जल और मिट्टी (पृथ्वी) को प्रदूषित कर दिया है, वरन छठवां तत्व हमारा मन भी प्रदूषित कर दिया है।
4. यूरोप में नवजागरण काल में सोलहवीं शती में उद्योगपतियों या व्यवासाइयों के 'गिल्ड' हुआ करते थे जो उद्योग या व्यापार के नियम बनाया करते थे और उनका सभी घटकों में पालन भी देखते थे; किन्तु वह आधुनिक अर्थों में 'सहकारिता' नहीं थी। अधिकांश विद्वान यह कहते हैं कि सहकारिता तो ब्रिटैन की औद्योगिक क्रान्ति पर प्रतिक्रिया की बीसवीं सदी की उपज है। किन्तु यह सुखद तथ्य है कि सहकारिता के विषय में विश्व में सर्वप्रथम श्रमिकों के संगठन, उद्योगपतियों या व्यवसाइयों, तथा गिल्ड, और सहकारिता के नियमों की जानकारी चाणक्य (३३० ईसा पूर्व) द्वारा रचित 'अर्थशास्त्र ' (आर्थिक शास्त्र नहीं, वरन शासन संहिता) में मिलती है और वह भी पर्याप्त विकसित रूप में। शासन निजी तथा शासकीय उद्योगों के कार्यों के सुचालन में उपयुक्त नियमों के बनाने तथा कार्यान्वयन में सक्रिय योगदान करता था।
आजकल अनेक विशाल उद्योग, दूकानें, बैन्क आदि सहकारिता के आधार पर चल रहे हैं, अधिकांशतया, इनके सदस्य उपभोक्ता होते हैं। विदेशों में यह अधिकांशत: सफ़ल हैं किन्तु एशिया में कम ही सफ़ल हैं। सहकारिता को इस देश में भी वांछनीय मह्त्व या सम्मान नहीं मिलता। सोचने की बात है कि सहकारिता की इस नगण्य प्रगति में हमारा चरित्र ही प्रमुख कारण है या इसमें पहले रूसी सोच पर आधारित समाजवाद (संक्षेप में कहें तो यूनिअनिज़म) ने इसका विरोध किया, और बाद में खुले बाजार के पूँजीवाद ने। जब विश्व में इसके तहत खरबों डालर का कार्य सुचारु और व्यवस्थित रूप से चल रहा है, तब हम भी समस्याओं के हल निकाल सकते हैं, किन्तु वे मूलभूत विचार में कमी के कारण सीमित फ़िर भी रहेंगे। सहकारिता के कार्य में कार्मिकों में दक्षता के साथ उपरोक्त मूल्य, यथा, सच्चाई, सेवाभाव, कर्तव्यनिष्ठा आदि अत्यंत आवश्यक हैं। यह चरित्र का विषय तो है ही, किन्तु साथ ही व्यक्ति की समग्र जीवन दृष्टि का भोगवादी न होकर 'त्यागमय- भोगवादी' होना भी आवश्यक है।
5. सहाकारिता की दृष्टि मानवीय हो सकती है, न तो यह आवश्यक रूप से पूँजीवादी है और न साम्यवादी। जैसा कि ऊपर लिखा गया है, यदि इसमें सहकारी संस्था का प्रमुख ध्येय 'लाभ कमाना ' नहीं है। दूसरे यह केवल मजदूरों या किसी एक वर्ग का ही हित नहीं देखती, और न उनके द्वारा राज्य संचालन की माँग करती है। पूँजीवाद में पैसे की गुलामी है, इसमें शक्ति का सदुपयोग (!) धन बनाने के लिये किया किया जाता है, जो अनंत और स्वीकार्य भ्रष्टाचार को जन्म देता है और जनतंत्र को नपुंसक बनाता है। और साम्यवाद में वैचारिक तथा संकेन्द्रित सत्ता की गुलामी है और इनका काडर- माफ़िया नागरिकों पर हावी रहता है। और दोनों ही दर्शन भोगवादी हैं। देखा जाए तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही सच्चे अर्थों में मानववादी नहीं हैं। सहकारिता तो, पूँजीपति हों या मजदूर हों, सदस्यों सहित सभी समाज का हित देखती है। इसमें क्या आश्चर्य कि सन २००२ में संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्विशेष सभा में यह स्वीकारा गया कि सहकारिता आर्थिक समृद्धि तथा समाजिक न्याय एवं विकास में मह्त्वपूर्ण योगदान देती है, और उऩ्होंने विश्व के देशों से अनुरोध किया कि वे इस सहकारिता के द्वारा समाज की आर्थिक, सामाजिक उन्नति करें। इसके महत्व को देखते हुए सं. रा. संघ ने वर्ष २०१२ को सहकारिता का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है।
यदि हम और भी विशाल परिप्रेक्ष्य में देखें तब जनतंत्र भी एक प्रकार का सहकारी संगठन है। किन्तु हमारा जनतंत्र वांछनीय रूप से सफ़ल नहीं कहा जा सकता क्योंकि जनता तथा शासकों के बीच भाषा भेद के कारण तथा अशिक्षा के कारण वांछनीय संचार नहीं है, विचारों का आदान प्रदान नहीं है, तब जनतंत्र के स्थान पर भ्रष्ट तन्त्र ही होगा। इसलिये राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक विकास हेतु नागरिकों द्वारा शासन में प्रभावी सहयोग के लिये उनमें आपस में संचार होना अनिवार्य है। इसे सहकारिता द्वारा अधिक प्रभावी ढ़ंग से किया जा सकता है। देश की समस्या और समाधानों पर विचार करने के लिये विशेष सहकारी समितियों की स्थापना की जा सकती है। इन समितियों का उद्देश्य समाज हित, देशहित या मानवहित होना चाहिये नकि, उदाहरणार्थ, यूनियन के समान एक विशेष वर्ग का हित।
सहकारिता का कार्य क्षेत्र बढ़ रहा है। ज्ञान की खोज में भी सहकारिता का प्रभावी उपयोग हो सकता है; यह निश्चित ही व्यावसायिक कार्य नहीं है। जब किसी अवधारणा के विषय में अनेक भिन्न मान्यताएं व्याप्त हों जो एक दूसरे से मेल नहीं खातीं, तब विभिन्न विचारक यदि सहकारिता के तहत 'वादे वादे जायते तत्वबोध:' के द्वारा एक, यदि सर्वमान्य नहीं तो, बहुमत मान्य 'समझ' या परिभाषा निष्कर्षरूप में स्वीकारें तब बहुत सारे भ्रम दूर किये जा सकते हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं। मेरी समझ में अधिकांश भारतीयों के मन में एक प्रश्न या संशय बना रहता है - 'धर्म निरपेक्षता का क्या अर्थ है? क्या 'धर्म निर्पेक्षता 'सैक्युलर' शब्द का सही अर्थ है ? उसका सही अर्थ स्थापित करने के बाद बहुत सम्भव है कि सुधार करने के लिये न्यायालय की शरण जाना पड़े, जिसमें धन की आवश्यकता निश्चित ही होगी। इस सहकारी समिति में आर्थिक लाभ के स्थान पर व्यय ही होगा। अत: इसका हल निकालने के लिये देशप्रेमी विद्वानों तथा विशेषज्ञों की सहकारी समिति की आवश्यकता मुझे दिखती है। वे अन्य विशेषज्ञों और विद्वानों की सलाह भी ले सकते हैं। किसी एक के बूते यह समस्या नहीं स्पष्ट होने वाली और न एक व्यक्ति उसके निर्णय पर कार्य कर सकता है, क्योंकि वह बहुत खर्चीला और श्रमसाध्य कार्य होगा। मुझे लगता है कि इसी कारण से यह विवादित विषय उलझा पड़ा है। अब और विलम्ब नहीं होना चाहिये। इसी तरह जनतंत्र में अल्पसंख्यकों के, पिछड़े वर्ग के अधिकार, शिक्षा में भाषा का चुनाव आदि अवधारणाओं पर भी वाद विवाद होना आवश्यक है कि तत्वबोध हो सके और हम जनतंत्र के विकास के लिये सही मार्ग अपना सकें।
6. जब से मनुष्य का आविर्भाव हुआ है सहयोग और सहकारिताके बल पर ही उसने अधिक शक्तिशाली खूंख्वार जानवरों से अपनी रक्षा की है, वरन अब उनकी रक्षा कर रहा है। हमारा जीवन सहकारी सिद्धान्तों पर ही जीवित है और विकास कर रहा है। हमें आनुवंशिकी में प्राप्त सहकार के विकास करने के लिये मानवीय संस्कृति' और शासकीय दण्ड आवश्यक हैं। सुसंस्कृत होने की क्षमता भी हमें प्रकृति ने दी है, और दण्ड से भय खाने की भी। इससे सामाजिक समृद्धि तथा सुख बढ़ता है। इतिहास साक्षी है कि जब भी कुछ दलों ने सहकारिता छोड़कर, स्वार्थी रास्ता अपनाया है, युद्ध हुए हैं, विनाश हुआ है और प्रगति में बाधा आई है। आज के वैज्ञानिक युग के खुले बाजार के आयुधों से सुसज्जित विश्वग्राम में यदि सहयोग/ सहकारिता कम होगी तब मानव जाति की सभ्यता ही संकट में पड़ जाएगी क्योंकि तब मनुष्य ही क्या राष्ट्र भी 'अपने' भोग के लिये भ्रष्टाचार करेंगे, जैसा कि कुछ तो आज भी कर ही रहे हैं। दूसरी ओर यह सहकार आंदोलन सफ़ल होने पर भी समस्याओं से घिरा रहेगा क्योंकि इसकी मूलभूत जीवन दृष्टि ही अपूर्ण है। इस सभ्यता पर आ रहे संकट से या समस्याओं से बचने के लिये हमें उपनिषदों में सुझाए गए मूल्यों को स्वीकारना होगा।
सहकारिता में कुछ मात्रा में मानव हित की भावना सन्निहित है, किन्तु, एक तो, इसमें क्न्ज़्यूमैरिज़म अर्थात भोगवाद का सीमित ही विरोध है - जो मात्र मानव की सुरक्षा तक के प्रकृति संरक्षण तक ही सीमित है, सम्पूर्ण प्रकृति का संरक्षण नहीं। दूसरे पश्चिम की सुख की अवधारणा में भोग के लिये अतीव उत्कण्ठा, तथा कामातुरता ही परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवन के चरम लक्ष्य हैं। भारतीय दर्शन तो समग्र मानव जाति, प्रकृति सहित समग्र विश्व के लिये सुख की कामना करता है - सर्वे भवन्तु सुखिन:, और उसके सुख की अवधारणा में भोग की उत्कण्ठा नहीं, वरन भोग पर नियंत्रण है, भोग के परे आनंद उसका चरम लक्ष्य है। इसके लिये सहकारिता के मूल्यों में हम ईशावस्य उपनिषद के मंत्र के इस मूल्य 'त्यक्तेन भुन्जीथा:' अर्थात 'भोगवाद को छोड़कर त्यागमय भोग' अपनाना होगा।
. . . . . . . . . . . . । विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से.नि.)
ई १४३, सैक्टर २१, नौएडा, २०१३०१